श्री संजय भारद्वाज
(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। )
? संजय दृष्टि – सोचो ज़रा..! ?
सोचने लगा
तो यों ही सोचा,
चाहे तो जला देना
मेरे साथ
मेरा पसंदीदा
कुर्ता-पायजामा,
जीन्स, हाफ कुर्ता,
मेरा चश्मा और..
पसंदीदा की
इससे लम्बी फेहरिस्त
नहीं है मेरी..,
खैर! जो-जो तुम चाहो
कर देना आग के हवाले
पर सुनो,
हाथ मत लगाना
मेरे प्रसूत शब्दों को..,
फिर आगे सोचा
तो यों ही सोचा
आखिर क्यों मानोगे
तुम मेरी बात..,
चलो, जला भी दिये मेरे शब्द
सोचो, कागज़ ही जलेगा न!
तुम्हारे ज़ेहन में तो
चाहे-अनचाहे
बसे ही रहेंगे मेरे शब्द,
भला उनको कैसे जलाओगे?
फिर आगे सोचा
तो यों ही सोचा
मान लो कर दिया जाये
तुम्हारा ब्रेन वॉश,
जैसा आतंकियों का
किया जाता है,
फिर तुम्हारे ज़ेहन में
नहीं बसेंगे मेरे शब्द,
पर सुनो, तब भी
नष्ट नहीं होंगे मेरे शब्द..!
चलो तुम्हारी झुंझलाहट
सुलझा दूँ
इस पहेली का
हल समझा दूँ,
अब मैंने जो सोचा
तो यह सोचा,
जो मैंने लिखा
वह पहला नहीं था
और आखिरी भी नहीं होगा..!
मुझसे पहले
हज़ारों, लाखों ने
यही सोचा, लिखा होगा,
मेरे बाद भी
हज़ारों, लाखों
यही सोचेंगे, यही लिखेंगे!
सो मेरे मित्रो!
सो मेरे शत्रुओ!
मिट जाता है शरीर
मिट जाते हैं कपड़े,
जूते, चश्मा, परफ्यूम
बेंत आदि-आदि..,
पर अमरपट्टा लिए
बैठे रहते हैं शब्द
जच्चा वॉर्ड से श्मशान तक,
अतीत हो जाते हैं व्यक्ति
व्यतीत नहीं होते विचार,
विश्वास न हो तो
सोच कर देखो बार!
तुम सोचोगे तो
तुम भी यही लिखोगे,
सोचने लगा तो
यों ही सोचा,
फिर आगे सोचा तो
वही सोचा
जो तुमने था सोचा,
जो उसने था सोचा,
जो वे सोचेंगे,
सोचो, ज़रा सोचो
सोचो तो सही ज़रा..!
आज और सदा अपनी नश्वरता और अपने अमर्त्य होने का भान रहे।
© संजय भारद्वाज, पुणे
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी
मोबाइल– 9890122603
नश्वरता का भान प्रकृति का रहस्य।
सार्थक अभिव्यक्ति
सोचने को मजबूर करती कविता
अमरपट्टा लिए बैठे रहते है शब्द…बहुत सुंदर!
शब्दों का अमरत्व ,बहुत खूब