श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

We present an English Version of this poem with the title  ☆ Prisons  ☆published today. We extend our heartiest thanks to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for this beautiful translation.)

 

☆ संजय दृष्टि  – बंदीगृह ☆

बंदीगृह के सारे दरवाजे खोल दो,
कारागार अप्रासंगिक हो चुके।
मजबूत फाटकों पर टंगे
विशाल ताले
जड़े जा चुके हैं
मनुष्य के मन पर,
हथकड़ियाँ,
हाथों में बेमानी लगती हैं,
वे, उग, जम, और
कस रही हैं नसों पर,
पैरों की बेड़ियाँ
गर्भस्थ शिशु के साथ ही
जन्मती और बढ़ती हैं
क्षण-प्रतिक्षण,
बस बुढ़ाती नहीं..,
विसंगतियों के फंदे
फाँसी बनकर
कसते जा रहे हैं,
यहाँ-वहाँ टहलते जानवर
रुपये के खूँटे से बंधे
आदमी पर तरस खा रहे हैं,
भूमंडलीकरण के दायरे में
सारा विश्व बड़े से
बंदीगृह में तब्दील हो चुका,
इसलिए कहता हूँ-
बंदीगृह के सारे दरवाजे खोल दो
कारागार अप्रासंगिक हो चुके।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

2 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments
अलका अग्रवाल

मनुष्य के मन पर विसंगतियों के ताले हैं-सशक्त अभिव्यक्ति।

वीनु जमुआर

अभिव्याप्त विसंगतियों के प्रति संवेदनशील मन का आक्रोश ! प्रभावपूर्ण अभिव्यक्ति।