॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #14 (31 – 35) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -14

 

भद्र नाम के गुप्तचर से पूंछी कुशलात।

कहो लोक अवधारणा क्या जन-प्रिय संवाद?।।31।।

 

रहा गुप्तचर मौन पर तनिक सोच के बाद।

बोला स्वामी ठीक है, पर है एक परिवाद।।32अ।।

 

राक्षस गृह आवास भी बाद भी सिय-स्वीकार।

को कहते कुछ नहीं यह मर्यादा अनुसार।।32ब।।

 

तप्त लोह जाता दरक सह धन की ज्यों मार।

त्यों टूटा मन राम का सुन यह वज्र-प्रहार।।33।।

 

क्या है उचित? करूँ मैं क्या? भुला दूँ मैं अपवाद।

या जन-मन का ध्यान रख करूँ मैं पत्नी त्याग?।।34अ।।

 

इस द्विविधा में फँस लगे चिंता करने राम।

झूले की सी गति हुई मन को न था विश्राम।।34ब।।

 

मन के मन्थन बाद भी मिला न कोई उपाय।

पत्नी के परित्याग की ही तब समूझी राह।।35अ।।

 

यशोधनी यश बचाने करते तन का त्याग।

फिर इंद्रिय सुख हेतु क्या? क्यों इंद्रिय-अनुराग।।35ब।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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