॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #16 (26 – 30) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -16

यात्रा अवधि में वही राजधानी थी, ध्वज पंक्ति दिखती थी जैसे हो उपवन।

गजराज पर्वत सदृश शोभते थे, सजे रथ ही जिसके थे सुन्दर भवन धन।।26।।

 

ज्यों चन्द्र का बिम्ब लख मुदित सागर उसकी तरफ होता उन्मुख सुशोभित।

त्यों कुश विमल छत्रधारी के संग सैन्यदल हुआ साकेत की ओर प्रस्थित।।27।।

 

प्रस्थित उमड़ती हुई वाहिनी के महाभार को सह न पाई धरित्री।

बन धूलि उड़ने लगी स्वयं नभ में बचते तड़प से बनी विष्णु की प्रिय।।28।।

 

पीछे कुशावती से बढ़ती अयोध्या, जहाँ भी रूकी मार्ग में कुश की सेना।

अगणित अपरिमित दिखी सबको चलती हुई राजपथ पर वह राज सेना।।29।।

 

मदजल से सिंचकर विकट हाथियों के मन-धूल कीचड़ गई राजपथ की।

औं अश्वखुर से विमर्दित हुआ कींच फिर धूल सी बन गई राजपथ की।।30।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments