॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #16 (41 – 45) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -16

गज-वाजि-धन-विपणि-प्रासाद से भर अयोध्या हुई सुसज्जित कामिनी सी।           

हर अंग में जिसके छाई हो शोभा, दिखी रूपसी अलंकृता भामिनी सी।।41।।

 

रहते अयोध्या में फिर से सजी जो, कुश सीतासुत ने सदा शांति चाही।

स्पर्धा न की कमी भी इंद्रपद की न ही कुबेर की अलका की कामना की।।42।।

 

फिर प्रिया को, वक्ष पै तरल माला, औ’ ओढ़नी रत्न शोभी सुहाई।

भीने वसन श्वाँस से हित उठें जो, पहनना सिखाने को ज्यों ग्रीष्म आई।।43।।

 

उत्तर दिशा, सूर्य के पास आने से लगी हिम गलित प्रेम आँसू बहाने।

दक्षिण दिशा छोड़ अगस्त्य का क्षेत्र, सूरज लगा हिमालय पास आने।।44।।

 

संतप्त दिन लंबे औ’ छोटी रातें, परस्पर विरोधी प्रणयकोप कारण।

पति-पत्नी विपरीत व्यवहार से हो दुखी दिखे मन में तरसते अकारण।।45।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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