पंडित मनीष तिवारी

 

(प्रस्तुत है संस्कारधानी जबलपुर के राष्ट्रीय  सुविख्यात साहित्यकार -कवि  श्री मनीष तिवारी जी  का मूर्धन्य साहित्यकार एवं सुप्रसिद्ध शिक्षाविद प्रो राजेंद्र ऋषि जी  के ७५वें जन्म दिवस पर यह विशेष आलेख.

ई-अभिव्यक्ति की और से प्रो राजेंद्र ऋषि जी को उनके समर्पित साहित्यिक एवं स्वस्थ जीवन के लिए  हार्दिक शुभकामनाएं. )

 

☆ प्रो राजेन्द्र ऋषि के 75 वर्ष पूर्ण होने पर विशेष ☆

 

सरहद पर सैनिक चीन की फौज से जूझ रहे थे, विकट परिस्थियां सामने थीं देश के नागरिकों में भयंकर आक्रोश था, कैसे भी हो चीन को सबक सिखाना है अपने अपने ढंग से लोग सैनिकों का हौसला बढ़ा रहे थे ऐसी विकट परिस्थिति में संस्कारधानी से राष्ट्रवादी स्वर फूटा जिसकी कविताएं सैनिकों में जोश भर रही थीं वह नित नए प्रतीकों से सैनिकों में साहस भरता और मातृभूमि के लिए सर्वस्व निछावर करने की प्रेरणा देता वही स्वर आगे चलकर कवि सम्मेलन और कवि गोष्ठियों का सिरमौर हुआ। सामाजिक और राजनैतिक विचारधारा का स्वर बनकर मंचों से रात रात भर कविताओं को उलीचता, राष्ट्रभक्ति के साथ रसिकों की प्यास बुझाता। 1962 से जिन युवा गीतकारों ने मंचों पर धूम मचाई उनमें मेरे पूज्य पिता गीतकार स्व ओंकार तिवारी चाचा जनकवि स्व सुरेंद्र तिवारी के साथ प्रो राजेन्द्र ऋषि का नाम तात्कालिक  कवि सम्मेलनों की अनिवार्यता बन गए थे। अपने फक्कड़पन और औदार्य के कारण कवि राजेन्द्र तिवारी, अब राजेंद्र ऋषि हो गए। उन दिनों हिंदी कवि सम्मेलन  के सशक्त हस्ताक्षर संस्कारधानी के ख्यातिलब्ध कवि व्यंग्य शिल्पी स्व श्रीबाल पांडेय जी का तीनों पर वरद हस्त था 1961 में कमानिया गेट पर आयोजित कवि सम्मेलन में श्रीबाल जी ने इन तीनों युवा कवियों का प्रथम बार बड़े मंच से काव्यपाठ करवाया ये कवि उनकी कसौटी पर खरे उतरे और वर्षों बरस मंचों पर प्रतिष्ठित रहे।

सरकारी नीतियां हों समाज सेवा हो शिक्षा का दान हो या मित्रों की आवश्यकता ऋषि जी सदैव तत्पर रहे और संकट के क्षणों में कंधे से कंधा मिलाकर अपना मित्र धर्म निभाया। उन दिनों के कवि सम्मेलन आज की तरह ग्लैमरस नहीं थे मंच पर शुद्ध कविताएं होती थीं उस्ताद कवि बराबर काव्यपाठ पर अपनी प्रतिक्रियाएं देते थे। कवि सम्मेलन रोजगार नहीं था साहित्य सेवा ही उसके मूल में थी अतः ऋषि जी ने जीवकोपार्जन हेतु हितकारिणी बीएड कालेज को कर्मभूमि बनाया। कविता का धर्म और शिक्षा का कर्म जीवन पर्यन्त चलता रहा शैक्षणिक जगत में ऐसी धाक बनी की जबलपुर विश्व विद्यालय ने उन्हें ससम्मान डीन की कुर्सी लगातार 3 बार सौंपी उल्लेखनीय है कि यह पहला अवसर था जब अशासकीय शिक्षा महाविद्यालयों से कोई प्रोफेसर विश्व विद्यालय का डीन हुआ। ऋषि जी ने डीन की आसन्दी पर बैठकर शिक्षा को नए आयाम दिए इसका जीत जागता प्रमाण विश्व विद्यालय में बीएड विभाग की स्थापना है। इस स्थापना पीछे उनका उद्देश्य यह भी था कि महाकौशल क्षेत्र और शहर की प्रतिभाएं विश्व विद्यालय में अपनी सेवा दे सकें किन्तु उनका यह सपना आज भी अधूरा है। तथापि उनका  कार्यकाल विश्व विद्यालय के लिए बहुत प्रेरक और मार्गदर्शक रहा। शनैः शनैः सेवानिवृत्ति के समय आया मित्रों ने बड़ा जलसा कर उन्हें कार्यमुक्त किया।

नौकरी के दौरान ही उनका प्रथम काव्य संग्रह आपा सहित्याकाश में बहुत तेज़ी से चर्चित हुआ संग्रह की अनेक रचनाओं में रुपयों का झाड़, अंधेरे की आज़ादी और सब कुछ बदल गया है मगर कुछ नहीं बदला ने लोकप्रियता के कीर्तिमान गढ़े। द्वतीय काव्य संग्रह “इक्कीसवी सदी को चलें” का विमोचन तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी ने किया था। तेजी से बदलते राजनैतिक परिदृश्य में आम आदमी की व्यथा कथा और देश की किस्मत में लिखे राजनैतिक छलावे को उन्होंने अपनी रचनाओं में खूब लताड़ा। यथा-

“दिल्ली बनी हैं झांसी झांसे नहीं बदले।

नटवर बदल गए हैं तमाशे नहीं बदले”।

अमीरी और गरीबी, फ़र्ज़ी जनसेवा के छलावे को भी उन्होंने आड़े हाथों लेकर लिखा

प्रगति पंथ के निर्माता हैं कड़ी धूप में,

रथ पर चलने वालों को रिमझिम बरसातें,

देश देखनेवाली आंखें धूल भरी हैं

स्वार्थ भारी आंखों को सपनों की सौगातें।

जब जब भी देश  जाती धर्म की आग में झुलसा तब तब ऋषि जी ने जनता के बीच सकारात्मक  पैगाम पहुंचाया-

इंसानी रिश्तों से बढ़कर मज़हब नहीं बड़े रहते हैं।

बढ़ जाता इंसान राह पर मज़हब वहीं खड़े रहते हैं।

ऋषि जी जब कवि सम्मेलन में काव्य पाठ करते तो अपनी सशक्त प्रस्तुति और सम्प्रेषणीयता के कारण पूरे वातावरण को अपने पक्ष में कर लेते हैं लोग उनकी सम्मोहनी के कायल हो जाते हैं। उनकी कविताएं सहज सरल भाषा में बड़ा पैगाम देते हुए समाधान की यात्रा करती हैं।

चूंकि ऋषि जी जीवन भर अक्खड़ फक्कड़ निरदुंद रहे प्रतिकूल परिस्थितियों में भी समय के साक्षी रहकर काव्य लेखन में लगे रहे चुनौतियों को सदा स्वीकार किया सच को सच लिखा गलत को आड़े हाथों लिया इसलिए सरकारी सम्मानों से सदैव वंचित रहे, सरकार की जन विरोधी नीतियों पर हमेशा कटाक्ष करते रहे इसलिए सरकारी कार्यक्रम, वजनदार लिफाफा और सुविधाएं उनसे कोसो दूर रहीं। वे राज दरबारी न होकर जनपीड़ा के गायक हैं उनकी कविता आम आदमी और गांव चौपालों में जिंदा है और हमेशा रहेगी।

ऋषि जी अलमस्त फकीर और ठठ्ठा मारकर हंसने वाले जिंदादिल इंसान हैं उनके पास समय का पाबंद होकर नहीं बैठा जा सकता किसी भी विषय की तह तक जाने  की उनमें विलक्षण प्रतिभा है। किसी कार्य के दूरगामी परिणाम क्या होंगे वे पहले ही घोषणा कर देते हैं। साहित्य के गिरते स्तर और कवि सम्मेलन के दूषित माहौल से वे बहुत क्षुब्ध हैं और समय समय अपने शिष्यों को आगाह करते रहते हैं।

एक समय आया जब पारम्परिक कविता को साहित्य न मानकर उल जुलूल बेतुकी कविता और कवियों की विरुदावली गायी जाने लगी तब उन्होनें सजग रचनाकार की भूमिका का निर्वहन करते हुए आंचलिक साहित्यकार परिषद का गठन कर पूरे मध्यप्रदेश में कविता की प्रतिष्ठा हेतु वृहद  अभियान चलाकर अनेक रचनाकार खड़े करते हुए बहुत मजबूत सारगर्भित सारस्वत अभियान का श्रीगणेश किया।मुझे गर्व है में भी आंचलिक  साहित्यकार परिषद का सिपाही रहकर अभियान में शामिल हुआ।

यहां यह जिक्र करना बहुत आवश्यक है कि 90 के दशक में सरकारी मंच पूर्णतः वामपंथियो की गिरफ्त में आ चुके थे दूरदर्शन और आकाशवाणी से वही रचनाएँ प्रसारित होती जिनके सिर पैर, ओर छोर नहीं होता ऐसी विकट स्थिति में सरकार से लड़ाई लड़कर पारम्परिक यथार्थ कविताओं का आकशवाणी से प्रसारण करवाने का श्रेय सिर्फ राजेन्द्र ऋषि को जाता है। इस दौर में आंचलिक  साहित्यकार परिषद के नीचे प्रदेश के समर्थ और सच्चे रचनाकार स्वाभिमान से काव्यपाठ कर सके। यह लिखते हुए मुझे गर्व हो रहा है कि इस दौर में गुमनामी के अंधेरे में खोए रचनाकारों की सुषुप्त चेतना जागृत हुई और आंचलिक साहित्यकार परिषद के अधिवेशनों से उन्हें देश व्यापी पहिचान मिली।

ऋषि जी का व्यक्तित्व सर्वग्राही और सर्व स्वीकार है जिस तरह उनकी लेखनी को सार्वभौम सर्वस्वीकृति है उसी तरह उनका निश्छल व्यवहार मौलिक रचनाकारों के प्रति सदैव प्रेरक रहा। अध्यक्षीय और मुख्यातिथ्य की मंचीय लिप्सा से दूर कविता के प्रति प्रतिबध्दता प्रणम्य है। अनेको बार मैंने ऋषि जी को श्रोता समुदाय में बैठकर मौलिक रचनाकारों की मुक्त कंठ से प्रशंसा करते देखा है।

परमप्रभु परमात्मा श्रीकृष्ण जी और राधा रानी ने ऋषि जी पर अनुपम कृपा बरसायी उनकी कलम से प्रस्फुटित कृष्ण काव्य के छंदों को श्रखला बढ़ते बढ़ते 1000 हो गई अब वे कृष्ण काव्य के ऋषि हैं वे कृष्ण भक्ति में इस कदरलीन हैं कि उन्होंने कृष्ण के साथ खुद को एकाकार कर लिया है। प्रत्येक छंद में नए प्रतीक नए सम्बोधन नया भाव नया द्रष्टिकोण दृष्टिगोचर होता है। हिंदी साहित्य के लिए कृष्ण काव्य वरदान है। ऋषि जी जब डूबकर सुनाते हैं तो लगता है एक छंद और सुन लेते अद्भुत अद्वतीय कृति का शब्द शब्द अनमोल है। छंदों का लालित्य सहज भाषा मन में भक्ति का बीजारोपण करती है बानगी के 2 छंदों का आप आनन्द लीजिये-

प्रेम के मीठे दो बोल कहो, बढ़ के सत्कार करो न करो,

दधि गागर को कम भार करो, दूजो उपकार करो न करो,

ये जन्म में प्रीति प्रगाढ़ रखो ओ जन्म में प्यार करो ने करो

अब पार कराओ हमें जमुना भव सागर पार करो न करो।

और

नज़रों पे चढ़ी ज्यों नटखट की खटकी खटकी फिरती ललिता,

कछु जादूगरी श्यामल लट की लटकी लटकी फिरती ललिता,

भई कुंजन में झुमा झटकी ,झटकी झटकी फिरती ललिता,

सिर पे धर के दधि की मटकी मटकी मटकी फिरती ललिता।

आज ऋषि जी ने अपने यशस्वी जीवन के 75 वर्ष पूर्ण किये गत वर्ष राष्ट्रीय कवि सङ्गम, मप्र आंचलिक साहित्यकार परिषद, जानकीरमण महाविद्यालय ने ऋषिजी का अमृत महोत्सव बहुत धूमधाम से द्विपीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरूपनन्द जी सरस्वती महाराज के निज सचिव ब्रह्मचारी सुबुध्दानन्द जी के पावन सानिध्य में मनाया था जिसमें नगर के कवि पत्रकार, लेखक, नेता, समाजसेवी, शिक्षाविद, किसानों ने बड़ी संख्या में उपस्थित होकर ऋषि जी को अपना शुभाशीष दिया । रसखान, अयोध्यासिंह उपाध्याय हरिऔध , जगन्नाथ दास रतनाकर की परंपरा के संवाहक ऋषि जी अपने ढंग से अपनी शैली अपनी भावाभिव्यक्ति से जनमानस तक पहुंचने का महनीय कार्य कर रहे हैं । ऋषि जी के सृजन में जिन तीन भाषाओं का समन्वय मिलता है उनमें बुंदेली भाषा, ब्रजभाषा और खड़ी बोली प्रमुख हैं।एक महाकवि, भक्त कवि और पथ प्रदर्शक के 75 वर्ष पूर्ण होने पर उनके स्वस्थ, दीर्घायु जीवन की कामना के साथ बहुत बहुत बधाई।

साहित्य के ऋषिराज को नमन।

 

©  पंडित मनीष तिवारी, जबलपुर ,मध्य प्रदेश 

प्रान्तीय महामंत्री, राष्ट्रीय कवि संगम – मध्य प्रदेश

मो न ९४२४६०८०४० / 9826188236

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सुरेश कुशवाहा तन्मय

आदरणीय बंधुश्री मनीष जी,
श्रद्धेय आचार्य श्री राजेंद्र ऋषि जी के विषय मे आपने अपने जो मनोभाव प्रकट किए हैं वे सारी विशेषताएं शत-प्रतिशत रूप से मैंने उनमें प्रत्यक्षतः अनुभव की है। मुझे खुसी है कि, मैं भी उनके स्नेहपात्रों की सूची में हूँ।
उन्हें प्रणाम सहित आपके लिए बधाई

डॉ भावना शुक्ल

शानदार अभिव्यक्ति