डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन ।  वर्तमान में संरक्षक ‘दजेयोर्ग अंतर्राष्ट्रीय भाषा सं स्थान’, सूरत. अपने मस्तमौला  स्वभाव एवं बेबाक अभिव्यक्ति के लिए प्रसिद्ध। आज प्रस्तुत है डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर ‘ जी  की एक भावप्रवण कविता   “गांधी और जीवन मूल्य “। डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर ‘ जी  के आज के सन्दर्भ में इस सार्थक एवं  विचारणीय विमर्श के लिए उनकी लेखनी को सादर नमन।  ) 

 ☆ कविता  –अनब्याही लड़कियाँ  

चार-चार जवान बेटियाँ

लदी हैं छाती पर सताना के

पर कौन बाँचे सताना

और उनकी अनब्याही लड़कियों की व्यथा

सताना को सताना नहीं इज़्ज़त से

छोटी की माँ के नाम से पुकारते हैं लोग

फिर भी इनकी कथा में

कोई रुचि ही नहीं लेता

तभी तो रह गई है अनकही की अनकही

छोटी की माँ और इन सबकी भी यह

अकथ कहानी कि

हँस नहीं सकतीं ये ठठाकर

बड़े बाप की बेटियों की तरह

मेले-ठेले नहीं जा सकतीं

मेहनत-मजूरी वाली मज़बूत कलाइयों के बावज़ूद

डरी-डरी रहती हैं मर्दों के सामने

कहानी में कथा रस चाहिए

पर यहाँ भरे भादों में भी सूखी पड़ी है

इनकी कथारस की कुइयाँ

जब पास में कुछ नहीं तो कोई क्यों

ले जाए इन गरीब अभागिन गउओं को

क्यों बाँधे अपने खूँटे

खूँटे तो बहुत हैं पर उनमें

मढ़वाने के लिए चाहिए

दस-दस तोले सोने का पत्तुर

और इनके यहाँ

किसी के मरने पर भी

मुँह में सोने का पानी डालने तक के लिए

मासा भर की कील भी नहीं निकलती

इनमें से किसी की नाक में तो

कहाँ से लाएँ सोने का इतना चौड़ा पत्तुर

जिनसे मढ़ी जा सके

थूहड़ की मेखों(वरों) की गोबरैली देह

इसीलिए तो सताना राज़ी हैं

किसी दोहाजू पर भी बड़ी वाली के लिए

इन अनब्याही लड़कियों की

राँड़-बेवा माँ के घर में भी

सोने का न निकलना

बहुत बुरा लगता है लड़के वालों को

थूकने लगते हैं आँखें बचा-बचाकर

छोटी भी अब छोटी नहीं रही बड़ी हो गई है

रोज़ किसी न किसी शीशे के टुकड़े में

अपना चेहरा निहारती है

उसे डर है कि कहीं

उसके चेहरे की भी चमक न चली जाए

एड़ियाँ भी फट न जाएँ

उसकी अपनी ही बड़ी बहनों की तरह

इसीलिए नहाती रहती है घंटों

झाँवे से घिस-घिस कर इतनी लाल कर लेती है एड़ियाँ

कि जैसे अभी-अभी लगा लिया हो आलता

किसी के यहाँ भी संतरे के छिलके पाती है तो

सबकी आँख बचाकर  उठा लाती है

रगड़ती है गालों पर कि झाईं न पड़े

टकसाल से निकली चवन्नी की तरह

अब भी चमकना चाहती है छोटी

वह भी जानती है कि

रीतिकाल के कवियों की नायिका की लुनाई

यानी चमड़ी की चमक ही होगी

उसे वरने वाले की पहली व आखिरी पसन्द

अब तो किसी के पास

खड़ी भी नहीं हो सकती

अपनी बड़ी बहिनों की तरह ही छोटी भी

काँटा चुभने पर भी ठिठके तो

लोगों के कान सनसनाने लगते हैं

आँखें नाच उठती हैं

दवा लेने भी

अपने भाई की साइकिल तक पर

नहीं जा  सकतीं छोटी और उसकी बहनेंं हँड़हिया बाज़ार

कभी- कभी तो

पैदल ही जाती हैं माँ (असमय बूढ़ी हुई माँ) को

संग-संग घसीटते हुए

डॉक्टर के पास

कोई मील भर की भी दूरी नहीं

इसी में दस जगह बैठती हैं सताना

कभी सूखा कभी बाढ़

यह नहीं कि छोटी की माँ उर्फ सताना नहीं जानतीं कि

उनके साथ-साथ खेती भी

हो गई है राँड़

फिर भी आस लगाए रहती हैं

हर फ़सल पर कि जीने भर को अन्न

(कुछ न कुछ)तो मिल ही जाएगा

आज नहीं तो कल मिल ही जाएँगे वर भी

जैसे मिल गए थे उसकी बहनों को

ऐसे अनब्याही ही नहीं बैठी रहेंगी

उसकी लड़कियाँ भी।

 

©  डॉ. गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

सूरत, गुजरात

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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