श्रीमति प्रेमलता उपाध्याय ‘स्नेह’
(श्रीमति प्रेमलता उपाध्याय ‘स्नेह’ जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। गणित विषय में शिक्षण कार्य के साथ ही हिन्दी, बुन्देली एवं अंग्रेजी में सतत लेखन। काव्य संग्रह अंतस घट छलका, देहरी पर दीप” काव्य संग्रह एवं 8 साझा संग्रह प्रकाशित। हम समय समय पर आपकी रचनाएँ अपने पाठकों से साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी कविता “गर्म थपेड़े लू की सह के…”।)
☆ “गर्म थपेड़े लू की सह के…” ☆ श्रीमति प्रेमलता उपाध्याय ‘स्नेह’ ☆
(मापनी 16/14, विधा – नवगीत, विरोधाभास युक्त व्यंजना)
गर्म थपेड़े लू की सह के,
पुष्प पटल ये मुस्काये।
चंद्रकिरण की बढ़ी तपन तो,
देख कली ये मुरझाये।।
अर्क रश्मियाँ शीतलता से,
लहर लहर लहराती हैं ।
वात रुकी है निर्जन वन में,
डाली झोंका खाती है।
सूर्य तपन को कम करता अब,
चाँद दिखे तन जल जाये।।
गर्म थपेड़े लू की सह के…
चोट बड़ी ही मन के भीतर,
होंठ हँसी आकर ठहरी।
पीर सही सब खुश हो होकर,
फाँस गड़ी जाकर गहरी।।
छाँव जलाये छाले उठते,
धूप उन्हें फिर सहलाये।।
गर्म थपेड़े लू की सह के…
विरह पढ़े ना दुख की पाती।
मौन अधिक बातें करता।
दग्ध तड़प में सुख को पाता,
मुग्ध हृदय रातें जगता।
घाव लगाते मरहम मन को,
दंड उसे अब बहलाये।।
गर्म थपेड़े लू की सह के…
काम करे जब सिर पर दिनकर,
गान सुनाए सुंदर सा ।
स्वेद बिंदु माथे पर छलके,
“स्नेह” दिखे है अंदर का।
श्रम भरता उल्लास अधिक ही,
देख पसीना नहलाये।।
गर्म थपेड़े लू की सह के…
© प्रेमलता उपाध्याय ‘स्नेह’
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