श्री श्याम खापर्डे
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं । सेवारत साहित्यकारों के साथ अक्सर यही होता है, मन लिखने का होता है और कार्य का दबाव सर चढ़ कर बोलता है। सेवानिवृत्ति के बाद ऐसा लगता हैऔर यह होना भी चाहिए । सेवा में रह कर जिन क्षणों का उपयोग स्वयं एवं अपने परिवार के लिए नहीं कर पाए उन्हें जी भर कर सेवानिवृत्ति के बाद करना चाहिए। आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर कविता “बरसात”। )
☆ व्यंग्य कविता – बरसात ☆
पहले,
जीवन की तरुणाई में
मौसम की अंगड़ाई में
वर्षा की पहली पहली बुंदे
गर्मी में कितनी
राहत दिलाती थी
तन और मन भीगोती थी
पहली पहली बारिश मे
पत्नी के आग्रह पर
वो बरसात मे भीगना
एक दूसरे को पानी मे खिंचना
पत्नी का वो पानी उड़ाते हुये चलना
शरारतसे किचड़ मेरे कपड़े पे मलना
भीगी हुयी साड़ी मे उसका सिमटना
बिजली की कड़क पर लिपटना
बारिश के उमंग मे
बच्चोके संग पत्नी की मस्ती
झूम जाती थी सारी बस्ती
बच्चे -बुढे, तरूण- तरुणियाँ
महिला -पुरुष ,नर- नारियाँ
भीगते थे लेकर हाथो में हाथ
रंगीन हो जाती थी पहली बरसात
बाद में, घर में पत्नी के हाथ की काॅफी
आँखो में शरारत, होंठो पर माफी
आगोश में होती थी
जब उसकी भीगी भीगी काया
लगता था पाली हो दुनिया की माया
और अब-
बालकनी मे बैठकर
पहली बरसात को देखकर
पत्नी कहती है- कैसा जमाना है
हर शख्स बेगाना है
इनमें, ना कोई उल्लास , ना उमंग है
ना मन में खुशी , ना कोई तरंग है
सब मशीन से हो गये हैं
अपने आप मे खो गये हैं
और हम दोनों
उम्र के इस पड़ाव पर
मन में द्वंद है
थक के हारकर कमरे में बंद हैं
पुरानी यादों में खोये हुये
हाथो में हाथ है
सोच रहे हैं,
वो भी एक बरसात थी,
ये भी एक बरसात है.
© श्याम खापर्डे
फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, भिलाई, जिला – दुर्ग ( छत्तीसगढ़)
मो 9425592588
शानदार कविता
धन्यवाद जी