डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मई दिवस पर मजदूर और किसान पर चार कविताएं

☆ मई दिवस विशेष – मजदूर और किसान पर चार कविताएं ☆ डॉ. मुक्ता ☆

[1]

मज़दूर

मज़दूर

देश के कर्णधार

बड़ी-बड़ी इमारतें बनाते

दिन भर लहू रूपी पसीना टपकाते

विस्फारित नेत्रों से ताकते रह जाते

कौन जानता, किसने उसे बनाया

परंतु घर के मालिक उस इमारत के

सौंदर्य पर वाह-वाही पाते

कौन जानता

कितने लोगों के टूटे सपने

जीवन की खुशियां

समिधा बन इमारत रूपी यज्ञ में जली

भूख से बिलबिलाते बच्चों की आहें

व क्रंदन हृदय को नासूर बन सालता

परंतु गुज़रे दिन कहां लौट पाते

विधाता ने लिखे हैं उनके भाग्य में आंसू

अंतहीन कष्ट, नाउम्मीदी, आंसुओं का सैलाब

भूख रूपी शत्रु से हर रोज़ जूझना

परंतु पापी पेट कब मानता

तीनों समय हाथ पसारे रहता

ज़िंदगी भर वे ज़िल्लत सहते

और अंत में नियति के सम्मुख

पराजय स्वीकार

भूख से रोते-बिलखते बच्चों को

बीच राह छोड़ देख आगे बढ़ जाते

इस आशा पर कोई अपना लेगा उन्हें

शायद हो जाएगा उनके दु:खों का अंत

परंतु विधाता भी कानून की भांति

सबको एक दृष्टि…

 

[2]

प्रवासी मज़दूर

चंद दिन बाद

इंसान विस्थापन का दर्द

महसूसने को विवश

कभी भूख-प्यास तो कभी लू के थपेड़े

व कभी हादसों के रूप में मंडराती मौत

पुलिस की लाठी भी नहीं तोड़ पाती

उनके मन का अटूट विश्वास

भविष्य की चिंता, आर्थिक तंगी

परिवार का भरण-पोषण

महामारी का डर और अशिक्षा

पलायन के मुख्य कारण

 

हम जा रहे हैं

दो-चार पोटलियों की सौग़ात लिए

जो हम बरसों पहले लाए थे साथ

देह पर खरोंचों के निशान

व लिए आंखों में आंसुओं का सैलाब

नहीं जानते…हम अभागे कहां पहुंचेंगे

न हम स्कूल पहुंच पाए

न ही प्राप्त कर सके किताबी ज्ञान

न बन सके आत्मनिर्भर

न न्याय पाने के लिए लगा सके ग़ुहार

न ही दर्ज करा पाए

सरकारी नुमाइंदों तक अपनी शिकायत

 

अपमान का घूंट पीते

अन्याय सहते-सहते

गुज़र गयी हमारी सारी उम्र

कोई नहीं समझता यहां हमारा दुख-दर्द

हमें तो झेलना है

विस्थापन का असहनीय दर्द

जानते हैं हम–यहा…

[3]

लॉक डाउन और मज़दूर

मज़दूर लौट रहे हैं अपने घरों से

जो लॉक डाउन के दौरान गए थे

बहुत इच्छा से अपने गांवों में

अब वहां रहेंगे, कभी लौटकर न आयेंगे

उसकी मिट्टी में रह कर्ज़ चुकाएंगे

परंतु चंद दिन बाद उन्हें आभास हुआ

यहां भी उनके लिए नहीं रोज़गार

न ही परिवारजनों को उनकी दरक़ार

 

वे अपने ही घर में

अजनबीपन का दंश झेलते

चल पड़े पुनः नौकरी की तलाश में

दूर…बहुत दूर,अकेले इसी उम्मीद से

परदेस में मेहनत कर

शायद वे जुटा पाएंगे दो जून की रोटी

और भेज कर पैसों की सौग़ात

कर पायेंगे अपना दायित्व-वहन

 

[4]

किसान और मज़दूर

किसान और मज़दूर

दोनों का भाग्य एक समान

दोनों रात-दिन मेहनत कर पसीना बहाते

बदले में दो जून की रोटी भी नहीं जुटा पाते

किसान प्राकृतिक आपदाओं के रूप में

कभी बाढ़, कभी सूखे का सामना करते

परंतु अपनी मेहनत का फल कहां पाते

फसल होने के इंतज़ार में वे स्वप्न सजाते

और बच्चों को आश्वस्त करते

वे इस वर्ष उन्हें अवश्य

स्कूल में दाखिला दिलायेंगे

किताबें व युनिफ़ॉर्म दिलायेंगे

पत्नी से नई साड़ी लाने का वादा कर

मां को शहर में इलाज कराने की आस बंधाते

पिता नया चश्मा पाने की प्रतीक्षा में दिन गिनते

 

परंतु अचानक आकाश में

बादलों की गर्जना होती, ओले बरसते

एक सैलाब-सा सब कुछ बहा कर ले जाता

और कुछ भी शेष नहीं रहता

वे मासूम बच्चों के साथ

खुले आकाश के नीचे या किसी प्लेटफार्म पर

अपनी ज़िंदगी के आखिरी दिन बिताते

और सोचते, न जाने क्या लिखा है

विधाता ने उनके भाग्य में

क्या कभी होगा उनके दु:खों का अंत

 

मज़दूर रात दिन पसीना बहाता

अक्सर महीने में बीस दिन मज़दूरी पाता

कभी तारकोल की सड़क बनाने में

तो कभी खेतों में बैल की जगह जोता जाता

कभी लोगों के लिए नए-नए घर बनाता

थका-हारा हाथ में शराब की बोतल थामे

घर जाता, खूब उत्पात मचाता

नशे में धुत्त कई-कई दिन तक

निढाल पड़ा रहता

घर में खाली डिब्बे मुंह चिढ़ाते

बच्चे भूख से बिलबिलाते

पत्नी अपने भाग्य को कोसती

खून के आंसू बहाती

आखिर विधाता क्यों जन्म दिया है उन्हें

‘तुम तो ब्रह्मा के रूप में जन्मदाता

विष्णु के रूप में पालनहार हो

फिर क्यों नहीं अपने नाम को सार्थक करते

उनकी रक्षा का दायित्व-वहन क्यों नहीं करते’

 

इस दशा में वह बच्चों को घर में बंद कर

पति को नशे की हालत में छोड़

चल पड़ती है दिहाड़ी की तलाश में

ताकि उसे कहीं काम मिल जाए

और वह अपने भूखे बच्चों का पेट भर सके

परंतु वहां भी वहशी नज़रें उसका पीछा करतीं

और अस्मत के बदले रोटी उसे प्राप्त होती

 

संसार में एक हाथ दे,दूसरे हाथ ले

यही लोक-व्यवहार चलता

जब औरत को काम नहीं मिलता

वह अपनी अस्मत बेचने को विवश हो जाती

क्योंकि भूख से बिलबिलाते

बच्चों का हृदय-विदारक करुण चीत्कार

उसके हृदय को उद्वेलित करता

अपाहिज ससुर और बीमार सास का दु:ख

उसे अपनी अस्मत का सौदा

करने को विवश कर देता

और बदले में चंद सिक्के

उसकी झोली में फेंक

एहसान किया जाता

वह अपने ज़ख्मों को सहलाती

उधेड़बुन में खोयी घर लौट आती

बच्चे मां के हाथ में भोजन देख खुश होते

‘मां जल्दी से खाना दे दो

भूख से हमारे प्राण निकले जा रहे’

उधर सास-ससुर के चेहरे पर चमक आ जाती

पति भी उसकी ओर मुख़ातिब हो कहता

चलो! भगवान का शुक्र है!

वह सबकी सुनता है

उसके नेत्रों से अश्रुओं का सैलाब

आक्रोश के रूप में फूट निकलता

वह चाहते हुए भी हक़ीक़त बयान नहीं पाती

कि वे पैसे उसे अपनी अस्मत का सौदा

करने की एवज़ में प्राप्त हुए हैं

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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