डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)
लेखनी सुमित्र की #41 – दोहे
विकल रहूं या मैं विवश, कौन करे परवाह ।
सब सुनते हैं शोर को, दब जाती है आह।।
सोच रहा हूं आज मैं, करता हूं अनुमान ।
अधिक अपेक्षा ही करें, सपने लहूलुहान।।
शब्द ब्रह्म आराधना, प्राणों का संगीत ।
भाव प्रवाहित जो सरित, उर्मि उर्मि है गीत ।।
कहनी अनकहनी सुनी, भरते रहे हुंकार।
क्रोध जताया आपने, हम समझे हैं प्यार ।।
कितनी दृढ़ता में रखूं , हो जाता कमजोर।
मुश्किल लगता खींच कर, रखना मन की डोर।।
© डॉ राजकुमार “सुमित्र”
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