श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  श्री सूबेदार पाण्डेय जी की  एक विचारणीय आलेख  “# मानव मन पर देश काल तथा परिस्थितियों का प्रभाव #। ) 

– श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 88 ☆ # मानव मन पर देश काल तथा परिस्थितियों का प्रभाव # ☆

भोजपुरी भाषा में एक कहावत है,

मन ना रंगायो ,रंगायो जोगी कपड़ा।

बार दाढ़ी रखि बाबा ,बनिए गइले बकरा।

इसी प्रकार मन की   मनोस्थिति पर   टिप्पणी करते हुए कबीर साहब ने कहा कि —-

माला फेरत जुग गया, गया न मन का फेर।

कर का मनका (माला के दाने)डारि के ,मन का मनका फेर।।

कबिरा माला काठ की ,कहि समुझावत मोहि ।

मन ना फिरायो आपना, कहां फिरावत मोहिं।।

                अथवा

जप माला छापा तिलक,सरै न एकौ काम।

मन कांचे नांचे बृथा ,सांचे रांचे राम।।

तथा गोपी उद्धव संवाद में

सूरदास जी ने गोपियों के माध्यम से मन के मनोभावों का गहराई से चित्रण करते हुए कहा कि  #उधो मन ना भयो दस बीस# तथा अन्य संतों महात्माओं ने भी जगह जगह मन की गतिविधियों को उद्धरित किया है, और श्री मद्भागवत गीता में तो वेद ब्यास जी अर्जुन द्वारा मन की चंचलता पर भगवान कृष्ण से मन को बस में करने का उपाय पूछा था कि—- हे केशव ! आप मन को बस में करने की बात करते हैं —-जिस प्रकार वायु को मुठ्ठी में कैद नहीं किया जा सकता, फिर उसी तरह चंचल स्वभाव वाले मन को कैसे बस में किया जा सकता है।

जिसके प्रतिउत्तर में  भगवान कहते हैं —-हे अर्जुन! निरंतर योगाभ्यास तथा वैराग्य के द्वारा मन को बस में करना अत्यंत सरल है।

हमने अपने अध्ययन में यह पाया कि क्षणिक ही सही उत्तेजित अवस्था में कठोर  से कठोर साधना करने वाला साधक नियंत्रण खो कर पतित हो अपना मान सम्मान गंवा देता है। आइए हम अपने अध्ययन द्वारा  मानव मन के स्वभाव प्रभाव का अध्ययन करें और समझे कि किस प्रकार उत्तेजना तथा भावुकता का  देश काल परिस्थिति तथा कहानी दृश्य चित्र तथा चलचित्र से परिस्थितियों से  मन  कैसे प्रभावित होता है।

मन की गतिविधियों पर अध्ययन करने से पहले हमें अपनी शारिरिक संरचना पर ध्यान देना होगा।   और उसकी बनावट तथा उसकी कार्यप्रणाली को समझना होगा तभी हम मन  के स्वभाव  को आसानी से समझ पायेंगे।

पौराणिक तथा बैज्ञानिक  अध्ययन तथा मान्यता के आधार पर  पंच भौतिक तत्वों  क्षिति ,जल पावक गगन तथा समीरा के संयोग  से मां के गर्भ में पल रहा , हमारा स्थूल शरीर निर्मित है, तथा शारीरिक संचालन के लिए जिस प्राण चेतना की आवश्यकता होती है वह प्राण वायु है उसके बिना हम जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते।

जब प्राण शरीर से अलग होता है तब स्थूल शरीर मर जाता है उसी स्थूल शरीर में आत्मा निवास करती है जिसे इश्वरीय अंश से उत्पन्न माना जाता है , शरीर और आत्मा के बीच एक तत्व  मन भी रहता है

 जो इंद्रियों के द्वारा मन पसंद भोग करता है, तथा सुख और दुख की अनुभूति मन में ही होती है। शांत तथा उत्तेजित मन ही होता है मन ही मित्र है मन ही आप का शत्रु है यह अति संवेदनशील है  उसके उपर  परिस्थितियों तथा कथा कहानी गीत चलचित्र छाया चित्र का प्रभाव भी देखा गया है मन का क्षणिक आवेश व्यक्ति को पतन के गर्त में धकेल देता है। वहीं शांत तथा   एकाग्र मन आप को उन्नति शीर्ष पर स्थापित कर देता है।एक

तरफ कामुक दृश्य के चल चित्र तथा छाया चित्र उत्तेजना से भर देते हैं, वहीं भावुक दृश्य आपकी आंखों में पानी भर देते हैं इस लिए निरंतर योगाभ्यास तथा विरक्ति पथ पर चलते हुए लोककल्याण में रत रह कर हम अपनी आत्मिक शांति को प्राप्त कर आत्मोउन्नति कर सकते हैं।

ऊं सर्वे भवन्तु सुखिन सर्वे संतु निरामया।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

18–09–21

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

image_print
5 1 vote
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments