श्री प्रहलाद नारायण माथुर
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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 6 – रिश्तों की हवेली ☆
रिश्तों की बहुत बड़ी हवेली थी हमारी,
लोग हमेशा हमारे रिश्तों की हवेली की मिसाल दिया करते थे ||
बहुत गर्व था हमें हमारे रिश्तों की हवेली पर,
रोशन रहती थी हमेशा हवेली, लोग बुजुर्गों को शीश नवाते थे ||
वक्त गुजरता गया रिश्ते धूमिल होते गए,
नजर ऐसी लगी की एक दिन टुकड़े-टुकड़े होकर रिश्तें बिखर गए ||
रिश्तों की हवेली जमींदोज होते ही कुछ रिश्ते दब गए,
कुछ रिश्ते छिटके तो कुछ बिखर गए, कुछ को लोग पैरों तले रौंध गए ||
कुछ रिश्ते मुरझा गए तो कुछ पतझड़ में पत्तों से झड़ गए,
जन्म-मरण तक सिमट गए रिश्ते, यह सब देख रिश्ते खुद रोने लगे ||
रिश्ते आज भी जीवित है मगर बिखरे-बिखरे से,
महक रिश्तों की उड़ गयी, लोग मंद-मंद मुस्करा तमाशा देखते रहे ||
जिंदगी गुजरती गयी रिश्ते फिसलते गए, काश !
कोई तो संभाले, देखा है सब को चुपके-चुपके एक दूसरे के लिए रोते हुए ||
कोई तो रिश्तों को छू भर ले, बहुत मुलायम है ये रिश्ते,
कोई एक हाथ बढ़ाएगा यकीनन सब बाँहों में सिमट जायेंगे तड़पते हुए ||
© प्रह्लाद नारायण माथुर
अच्छी रचना