श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”
(आज “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद साहित्य “ में प्रस्तुत है एक धारावाहिक कथा “स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सिपाही -लोकनायक रघु काका ” का द्वितीय भाग।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सिपाही -लोकनायक रघु काका-3 ☆
अब देश स्वतंत्रत हो गया था, रघु काका जैसे लाखों अनाम शहीदों की कुर्बानी रंग लाई थी तथा रघु काका की त्याग तपस्या सार्थक हुई, उनकी सजा के दिन पूरे हो चले थे,आज उनकी रिहाई का दिन था। जेलके मुख्य द्वार के सामने आज बड़ी भीड़ थी, लोग अपने नायक को अपने सिर पर बिठाअभिनंदन करने को आतुर दिख रहे थे। उनके बाहर आते ही वहां उपस्थित अपार जनसमूह ने हर हर महादेव के जय घोष तथा करतलध्वनि से मालाफूलों से लाद कर कंधे पर उठा अपने दिल में बिठा लिया था । लोगों से इतना प्यार और सम्मान पा छलक पड़ी थी रघु काका की आँखें।
इस घटनाक्रम से यह तथ्य बखूबीसाबित हो गया कि जिस आंदोलन को समाज के संभी वर्गों का समर्थन मिलता है, वह आंदोलन जनांदोलन बन जाता है, जो व्यक्तित्व सबके हृदय में बस मानस पटल पर छा जाता है , वह जननायक बन सबके दिलों पर राज करता है।
इस प्रकार समय चक्र मंथर गति से चलता रहा चलता रहा,और रघु काका जेल में बिताए यातना भरे दिनों अंग्रेज सरकार द्वारा मिली यातनाओं को भुला चले थे। और एक बार फिर अपने स्वभाव के अनुरूप कांधे पर ढोलक टांगें जीविकोपार्जन हेतु घर से निकल पड़े थे,यद्यपि उनके पुत्र राम खेलावन अच्छा पैसा कमाने लगे थे। वो नहीं चाहते थे कि रघु काका अब ढोल टांग भिक्षाटन को जाएँ । क्योंकि इससे उनमें हीनभाव पैदा होती लेकिन रघु तो रघु काका ठहरे। उन्हें लगता कि गांव ज्वार की गलियां, बड़े बुजुर्गो का प्यार, बच्चों की निष्कपट हँसी अपने मोह पाश में बांधे अपनी तरफ खींच रहीं हों। इन्ही बीते पलों की स्मृतियां उन्हें अपनी ओर खींचती और उनके कदम चल पड़ते गांवों की गलियों की ओर।
आज महाशिवरात्रि का पर्व है, सबेरे से ही लोग-बाग जुट पड़े हैं भगवान शिव का जलाभिषेक करने। शिवबराती बन शिव विवाह के साक्षी बनने। महाशिवरात्रि पर पुष्प अर्पित करने मेला अपने पूरे यौवन पर था। पूरी फिजां में ही दुकानों पर छनती कचौरियो जलेबियों की तैरती सौंधी सौंधी खुशबू जहाँ श्रद्धालु जनों की क्षुधा को उत्तेजित कर रही थी तो कहीं बेर आदि मौसमी फलों से दुकानें पटी पड़ी थीऔर कहीं घर गृहस्थी के सामानों से सारा बाज़ार पटा पड़ा था, तो कहीं जनसमूह भेड़ों ,मुर्गों, तीतर, बुलबुल के लड़ाई का कौशल देखने में मशगूल था। कहीं लोक कलाकारों के लोक नृत्य तथा लोकगीतों की स्वरलहरियां लोगों के बढ़ते कदमों को अनायास रोक रही थी। इन्ही सबके बीच मंदिर प्रांगण से गाहे-बगाहे उठने वाले हर-हर महादेव के जयघोष की तुमुल ध्वनि वातावरण में एक नवीन चेतना एवं ऊर्जा का संचार कर रही थी।
उन सबसे अलग -थलग पास के प्रा०पाठशाला पर कुछ अलग ही ऱंग बिखरा पड़ा था। महाशिवरात्रि के अवकाश में विद्यालय में वार्षिक सांस्कृतिक प्रतियोगिता चल रही थी, निर्णायक मंडल के मुख्य अतिथि जिले के मुख्य शिक्षाधिकारी श्री राम खेलावन को बनाया गया था। क्योंकि उनके ऊंचे पद के साथ एक स्वतंत्रता सेनानी का पुत्र होने का सम्मान भी जुड़ा था, जो उस समय मंचासीन थे। प्रतियोगिता में उत्कृष्ट प्रदर्शनकर्ता को संम्मानित भी राम खेलावन के हाथों होना था। प्रतियोगिता में एक से बढ़ कर एक धुरंधर प्रतियोगी अपनी कला प्रदर्शित कर रहे थे।
ऐसे में सर्वोच्च प्रतिभागी का चयन मुश्किल हो रहा था। एक कीर्तिमान स्थापित होता असके अगले पल ही टूट जाता। उसी मेले में सबसे अलग-थलग जमीन पर आसन
ज़माये अपनी ढोल की थाप पर रघूकाका ने आलाप लेकर अपनी सुर साधना की मधुर तान छेड़ी तो जनमानस विह्वल हो आत्ममुग्ध हो गया। उनकी आवाज़ का जादू तथा भाव प्रस्तुति का ज्वार सबके सिर चढ़ कर इस कदर बोल उठा कि वाह बहुत खूब, अतिसुंदर, अविस्मरणीय, लोगों के जुबान से शब्द मचल रहे थे कि तभी आई प्राकृतिक आपदा में सब ऱंग में भंग कर दिया।सब गुड़गोबर हो गया। पहले लाल बादल फिर उसके बाद तड़ित झंझा तथा काले मेघों के साथ ओलावृष्टि ने वो तांडव मचाया कि मेले में भगदड़ मच गई। जिसे जहां ठिकाना मिला वहीं दुबक लिया। उसी समय अपनी जान बचाने रघूकाका भी भाग चलें पाठशाला की तरफ। पाठशाला प्रांगण में घुसते ही सबसे पहले मंचासीन रामखेलावन से ही रघु काका की नजरें चार हुई थी,। लेकिन दो अपरिचितों की तरह रघु काका को देखते ही रामखेलावन ने अपनी निगाहें चुरा ली थी। उनके कलेजे की धड़कन बढ़ गई, मुंह सूखने लगा कलेजा मुंह को आ गया। वे अज्ञात भय तथा आशंका से थर-थर कांप रहे थे। पसीने से तर-बतर बतर हो गये। उन्हें डर था कि कहीं यह बूढ़ा मुझसे अपना रिश्ता सार्वजनिक कर के अपमानित न कर दे। इसलिए इन परिस्थितियों से बचने हेतु शौच के बहाने रामखेलावन विद्यालय के पिछवाडे छुप आकस्मिक परिस्थितियों से बचने का प्रयास कर रहे थे।
रघु काका की अनुभवी निगाहों ने रामखेलावन के हृदय में उपजे भय तथा अपने प्रतिउपजे अश्रद्धा के भावों को पहचान लिया था ।वो लौट पड़े थे। थके थके पांवों बोझिल कदमों से मेले की तरफ़। दिल पे लगी आज की भावनात्मक चोट अंग्रेजों द्वारा दी गई यातना की चोट से ज़्यादा गहरी एवम् दुखदायी, जिसने आज उनके सारे हौसलों को तोड़ कर अरमानों का गला घोट दिया था।
क्रमशः …. 4
© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”
संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266
जानदार व्यंग,