श्री हेमन्त बावनकर
(मेरी पुस्तक ‘शब्द …. और कविता’ से ली गई एक कविता – “संस्कार और विरासत”।)
☆ संस्कार और विरासत ☆
आज
मैं याद करती हूँ
दादी माँ की कहानियाँ।
राजा रानी की
परियों की
और
पंचतंत्र की।
मुझे लगता है
कि-
वे धरोहर
मात्र कहानियाँ ही नहीं
अपितु,
मुझे दे गईं हैं
हमारी संस्कृति की अनमोल विरासत
जो ऋण है मुझपर।
जो देना है मुझे
अपनी अगली पीढ़ी को।
मुझे चमत्कृत करती हैं
हमारी संस्कृति
हमारे तीज-त्यौहार
उपवास
और
हमारी धरोहर।
किन्तु,
कभी कभी
क्यों विचलित करते हैं
कुछ अनुत्तरित प्रश्न ?
जैसे
अग्नि के वे सात फेरे
वह वरमाला
और
उससे बने सम्बंध
क्यों बदल देते हैं
सम्बंधों की केमिस्ट्री ?
क्यों काम करती है
टेलीपेथी
जब हम रहते हैं
मीलों दूर भी ?
क्यों हम करते हैं व्रत?
करवा चौथ
काजल तीज
और
वट सावित्री का ?
मैं नहीं जानती कि –
आज
‘सत्यवान’ कितना ‘सत्यवान’ है?
और
‘सावित्री’ कितनी ‘सती’?
यमराज में है
कितनी शक्ति?
और
कहाँ जा रही है संस्कृति?
फिर भी
मैं दूंगी
विरासत में
दादी माँ की धरोहर
उनकी अनमोल कहानियाँ।
उनके संस्कार,
अपनी पीढ़ी को
अपनी अगली पीढ़ी को
विरासत में।
© हेमन्त बावनकर, पुणे
18 जून 2008
वाह अप्रतिम रचना
आजकी युवा पिढी की मनस्थिती का सही चित्रण
वास्तव है….बहोत बढ़िया…
काश!हमारी युवा-पीढ़ी अपनी संस्कृति से रू-ब-रू होकर संस्कारों को अपनन कर, धरोहर रूप में आगामी पीढ़ी को अग्रेषित कर पाती।
बढिया….बहुत सुन्दर…
बढिया…बहुत सुन्दर कविता
आप सब का आभार