श्री प्रहलाद नारायण माथुर
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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 12 – मेरे आँसू ☆
मेरे आँसू भी कितने अनमोल थे,
आँखों में आंसुओं के तो जैसे खजाने भरे थे ||
हर कहीं हर कभी निकलने को बेताब रहते,
दोनों आँखों से जी भर कर आँसू निकल जाते थे ||
खुद के ग़म में तो सभी आँसू बहाते हैं,
हमारे आंसू तो दूसरों के गम में भी बह निकलते थे ||
मौका नहीं छोड़ती आंखे आंसू बहाने के,
आँसू भी दोनों ही आँखों से बेतहाशा निकलते थे ||
लोग जो आज मेरे आस-पास खड़े होकर रो रहे हैं,
उनमें से कुछ तो जीते जी मेरे मरने की दुआ करते थे ||
कुछ वो लोग भी हैं जो मुझे देख कन्नी काट लेते थे,
रोते हुए किसी के भी आज यहां आँसू थम नहीं रहे थे ||
एक ही दिन में इतना प्यार लुटा दिया सबने मुझ पर,
जी करता है सबको जी भर के गले लगा लूँ जो मुझ पर रो रहे थे||
काश! कल मुझसे लिपट जाते तो आँसुओ से तर कर देते,
गिले शिकवे मिट जाते, मेरे आँसू भी उनके लिए निकलने को तड़प रहे थे ||
सबने खूब झझकोरा मेरी खुली आँखे बंद कर दी,
आज आँखों में आंसुओं का अकाल था, आँखों ने आज दगाई कर दी थी ||
कमबख्त आँसू भी धड़कन की तरह दगा दे गए,
जिन आँखों में समुन्द्र था वो आज एक बूंद आँसू को तरस रही थी||
© प्रह्लाद नारायण माथुर