सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

(आदरणीया सुश्री शिल्पा मैंदर्गी हम सबके लिए प्रेरणास्रोत हैं। आपने यह सिद्ध कर दिया है कि जीवन में किसी भी उम्र में कोई भी कठिनाई हमें हमारी सफलता के मार्ग से विचलित नहीं कर सकती। नेत्रहीन होने के पश्चात भी आपमें अद्भुत प्रतिभा है। आपने बी ए (मराठी) एवं एम ए (भरतनाट्यम) की उपाधि प्राप्त की है।

ई-अभिव्यक्ति (मराठी) में आपकी कविता स्पंदन शीर्षक से प्रकाशित की गई थी जिसे पाठकों का भरपूर प्रतिसाद मिला। आपके जीवन पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ “माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे” (“मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”) का ई-अभिव्यक्ति (मराठी) में सतत प्रकाशन हो रहा है। इस अविस्मरणीय एवं प्रेरणास्पद कार्य हेतु आदरणीया सौ. अंजली दिलीप गोखले जी का साधुवाद जो सुश्री शिल्पा जी की वाणी को मराठी में लिपिबद्ध कर रहीं हैं।

ऐसी अद्भुत प्रतिभा को प्रकाश में लाने के लिए ई-अभिव्यक्ति परिवार की ओर से सौ. अंजली दिलीप गोखले जी एवं सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी जी  को साधुवाद एवं हृदय से आभार।)  

☆ जीवन यात्रा ☆ मनोगत – शिल्पा की आँखों की प्रेरणा !!! ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी☆ 

मै शिल्पा! ‘शिल्पा मैंदर्गी’। ई-अभिव्यक्ति के साहित्यकारों में मुझे शामिल किया गया है‌‌। इसलिये पहले मैं हेमन्त बावनकर सर, सुहास पंडित सर और उज्वला दीदी जी के प्रति अंतःकरण से आभार प्रकट करती हूँ!

कहने की बात यह है कि, मैं तो जन्म से ही अंधी नही हूँ!

साधारण तौर पर तीसरी कक्षा तक मुझे थोडा थोडा धुंधला सा दिखाई देता था। जब मैं बहुत छोटी थी, तब से मेरे दादी को शक था। इसलिये उन्होने मेरे मम्मी-पापा को डॉक्टर की सलाह लेने के लिए प्रेरित किया । बहुत से नेत्र-विशेषज्ञों डॉक्टरों को दिखाया गया। सब डॉक्टरों का एक ही मत था,  इसकी दृष्टि जायेगी।

घर में दो बहने, एक भाई,  इनके साथ मैं बड़ी हो रही थी। उनके साथ खेलती थी। सबसे बहुत मस्ती भी करती थी। आँखों को जितना दिखाई देता था, उसके साथ मेरा दिन अच्छी तरह से गुजर जाता था। मुझे कुछ भी भयावह सा नही लगता था।

मुझे कम दिखाई देता है, ऐसा कुछ भी समझ में नही आता था। सब लोगों को ऐसा ही दिखाई देता है, ऐसी मेरी समझ थी। मम्मी का हाथ पकड़कर मैं पाठशाला आती-जाती थी।  मुझे आँखों को देखने की कोई कमजोरी है ऐसा मुझे कभी नहीं लगा।

जब मैं तीसरी कक्षा में थी तब मेरी आँखों के बहुत ऑपरेशन्स हुए। मम्मी पप्पा धीरता से मेरी देखभाल करते थे। लगबग आठ दस ऑपरेशन्स हो गये, फिर भी कुछ फर्क नही पड़ा। मेरे पिताजी विद्या मंदिर स्कूल मे पढ़ाते थे। वे अच्छे अध्यापक थे। मेरा पूरा  ध्यान भी रखते थे। मुझे बहुत अच्छी अच्छी कहानियाँ सुनाते थे। पाँचवी कक्षा में मैंने ‘नाटिका स्पर्धा’  में भाग लिया था। पहिली स्पर्धा में छत्रपति शिवाजी महाराज जी ने अफ़जल खान का वध कैसे किया? यह नाटिका सादर की। आश्चर्य की बात यह है कि उसमें मुझे पहले नंबर की ढाल यशस्वी के रूप में मिल गई। मेरे जीवन का यह पहला यश मुझे बहुत कुछ जीने का आसरा दे गया।

पढाई, पाठशाला, स्पर्धा, घर मे दंगा-मस्ती और आँखों का इलाज शुरू था। दिखाई देने का आँखों का काम खत्म हो गया। आँखों की दृष्टि ने धीरे धीरे मेरा साथ छोड़ दिया। आँखों से दिखाना बंद हो गया।

मेरी आँखों से पानी आता था। पानी आखों से आने को बंद करने के लिये ऑपरेशन हुआ। मेरे पापा मम्मी ने हमेशा मेरा साथ दिया। दिखाई नहीं देता ऐसा समझकर मेरा ज्यादा लाड़ प्यार भी कोई नहीं करते थे।

ऑपरेशन की वजह से मेरी आँखें सफेद रंग की भयावह लग रही थी। दूसरों को मुझे देखकर भय नही होना चाहिए, इसके लिए भीतर का कुछ भाग बदल दिया गया। वह भी एक ही आँख का। डॉक्टरों के कठोर प्रयास के कारण कृत्रिम आँख बना दी गई। वही आँख मैं निकालती हूँ और फिर उसी जगह पर बैठाती हूँ। फिर भी उसका कुछ फायदा नही हुआ। मूल भावना यह थी कि लोगों को मुझे देख कर भय नही होना चाहिए और कुछ तकलीफ भी नहीं होनी चाहिये ।

संक्षेप मे इतना ही कि कृत्रिम आँखें मेरे लिये नहीं किन्तु, लोगों को दिखाने के लिए आँखें हैं।

जिंदगी कैसे जीनी चाहिए?

यह समझने के लिये ही है, शिल्पा की आँखों की प्रेरणा!!!

संपर्क – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी,  दूरभाष ०२३३ २२२५२७५

प्रस्तुति – सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी

पुणे

७०२८०२००३१

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

 

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