श्री सुरेश पटवा
(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।
आज से प्रस्तुत है इज़ाडोरा डंकन की आत्मकथा “माय लाइफ” के श्री युगांक धीर द्वारा हिंदी भावानुवाद पर श्री सुरेश पटवा जी की पुस्तक चर्चा।)
☆ पुस्तक चर्चा ☆ “माई लाइफ़” – लेखिका – इज़ाडोरा डंकन – अनुवाद : युगांक धीर ☆ श्री सुरेश पटवा ☆
पुस्तक : माई लाइफ़
लेखिका : इज़ाडोरा डंकन
प्रकाशक : संवाद प्रकाशन
अनुवाद : युगांक धीर
क़ीमत : 350.00
प्रकाशन वर्ष : 2002
यह समीक्षा इज़ाडोरा की आत्मकथा ‘माय लाइफ’ के हिन्दी अनुवाद ‘इज़ाडोरा की प्रेमकथा’ पढ़कर लिखी गयी है। उसके जन्मदिन 29 अप्रैल के दिन अंतरराष्ट्रीय नृत्य दिवस (इंटरनेशनल डांस डे) मनाया जाता है।
नृत्य, नाच, झूमना, गाना या डांस इन्सानों की नैसर्गिक प्रवृत्तियों में से एक प्रवृत्ति है। यह माना जा सकता है। इसमें बहस मुबाहसे की जरूरत नहीं है। भारत में तो क्लासिक संगीत की तरह क्लासिक नृत्य भी हैं। इस लेख का उद्देश्य अमरीका की आधुनिक नृत्य की जननी महान इज़ाडोरा की आत्मकथा के बहाने स्त्रीत्व को समझना होगा। गौरतलब हो कि इस महान नृत्यांगना को इतिहास में कई तरीक़ों से याद किया जाता रहा है। इसके साथ ही उनकी मुक्त विचारधारा और जीवनशैली को भी निशाने पर लिया जाता रहा है। हैरत की बात है कि जिस नृत्य को लेकर अमरीका बीसवीं शताब्दी में माइकल जैकसन को लेकर दीवाना रहा वहीं इस मशहूर नृत्यांगना का ज़िक्र भी नहीं सुनाई देता या बहुत बड़े पैमाने पर सुनाई नहीं देता। ज़िक्र होता भी है तो बहुत ही धीमी आवाज़ में। आज का समाज भी आज़ाद स्त्री से डरा हुआ है।
भारत में भी तमाम तरह की नृत्य प्रतियोगिताओं के कार्यक्रमों के दौरान माइकल जैकसन का नाम आता रहता है पर इज़ाडोरा का नाम सुनाई भी नहीं देता। यह भी सच है कि सत्ताओं ने जिस इतिहास को दिखाना चाहा, लोगों तक वही पहुंचा भी। जिसे स्कूली किताबों में जगह मिली उनका मनमाना चेहरा दिखाया गया। जो लोग/ व्यक्तित्व /समाज बनाई गई लीक पर चले उन्हें फ्रेम में लिया गया। पर जो लीक पर चलने को राज़ी न हुए उन्हें एक अंधेरा और लंबी खामोशी दी गई। यह हर जगह के इतिहासों के साथ है। महिलाओं और दबाये गए लोगों के साथ यह काम और भी क्रूरता से किया गया। लेकिन कुछ लोग इतिहास में किसी भी तरह मारे नहीं जा सके और उभर आए।
एंजेला इज़ाडोरा डंकन का जन्म 27 मई 1878 को अमरीका के सेन फ्रांसिस्को में हुआ था। बेहद छोटी अवस्था में उनके माता पिता के बीच तलाक हो गया था। उनके परिवार में उनकी माँ को मिलाकर पाँच लोग थे। माँ ने ही अकेले अपने चारों बच्चों की परवरिश की। इज़ाडोरा ने अपनी आत्मकथा ‘माय लाइफ’ में अपने बचपन का बेहद प्रभावपूर्ण वर्णन किया है। वह आत्मकथा में नृत्य के बारे में लाजवाब बात कहती हैं- “अगर लोग मुझसे पूछते हैं कि मैंने नाचना कब शुरू किया तब मैं जवाब देती हूँ- ‘अपनी माँ के गर्भ में। शायद शहतूतों और शैम्पेन के असर की वजह से, जिन्हें प्रेम की देवी एफ़्रोदिती की खुराक कहा जाता है।”
वह यह भी कहती हैं- “मुझे इस बात का शुक्रगुजार होना चाहिए कि जब हम छोटे थे तब मेरी माँ गरीब थी। वह बच्चों के लिए नौकर या गवर्नेस नहीं रख सकती थी।। इसी वजह से मेरे अंदर एक सहजता है, ज़िंदगी को जीने की एक कुदरती उमंग है, जिसे मैंने कभी नहीं खोया।” बीसवीं शताब्दी के आरंभ में इज़ाडोरा का इस तरह से ज़िंदगी के प्रति मुखर होना सचमुच आकर्षित करता है।
वे स्कूल में भी इस कदर पेश आती थी कि परंपरा में ढली टीचर की निगाह में वे चुभ जाया करती थीं। आत्मकथा में वे लिखती हैं कि एक बार टीचर ने अपनी जिंदगी का इतिहास लिखकर लाने को कहा। अपने दिये जवाब में वे कहती हैं- “जब मैं पाँच वर्ष की थी तब तो तेइसवीं गली में हमारा एक कॉटेज था। पर किराया न दे पाने के कारण हम वहाँ नहीं रह सके और सत्रहवीं गली में चले गए। पर पैसों की तंगी के कारण जल्दी ही मकान मालिक यहाँ भी तंग करने लगा और हम बाइसवीं गली में शिफ्ट हो गए। वहाँ भी शांति से नहीं रह सके और वहाँ से भी खाली करके दसवीं गली में जाना पड़ा। इतिहास इसी तरह चलता रहा और हम लोगों ने जाने कितनी बार घर बदले।” टीचर ने जब यह सुना तो वह गुस्से से लाल हो गई और नन्ही इज़ादोरा को प्रिन्सिपल के पास भेज दिया गया। प्रिन्सिपल ने माँ को बुलाया। जब माँ ने यह देखा तो वह खूब रोने लगीं और कसम खाकर कहा कि यह सच है।
सभी बच्चों के लिए टीचर की एनक में एक ही फ्रेम है। एक ही साँचे में ढालने की कोशिश। आज भी यही शिक्षा है। टीचर को किसी भी विद्यार्थी की स्वतंत्र स्वतन्त्रता को सम्मान देते बहुत हद तक नहीं देखा गया। उसकी मूल दिलचस्पी या चाहत की समझ बहुत से कम शिक्षकों को हो पाती है। यह स्कूली शिक्षा की एक कड़वी सच्चाई भी है। इसलिए जब इज़ाडोरा का स्कूल चल पड़ा तब उन्होंने इस पढ़ाई को नकार दिया। पर व्यक्तिगत रूप से परिवार के अन्य लोगों के साथ उन्होंने जगह-जगह की लाइब्रेरी में बहुत सा समय बिताया। बेहद कम उम्र से आसपड़ोस के बच्चों को इज़ाडोरा ने नृत्य सिखाने की शुरुआत की और लगभग दस वर्ष की होते होते उन्हों ने एक बढ़िया नृत्य प्रशिक्षण स्कूल खोल लिया। इसकी मूल प्रेरणा उनकी माँ रहीं जो नृत्य और संगीत की गहराई से समझ रखती थीं। उन्होंने अपने बच्चों में भी उसका पर्याप्त प्रवाह किया।
इज़ाडोरा दो शताब्दियों के बीच के बिन्दु पर विख्यात रहीं। इस प्रसिद्धि की मूल वजह उनका आधुनिक नृत्य था। कहना न होगा कि उन्होंने नितांत अपनी शैली विकसित की बल्कि उसे नए आयामों तक भी पहुंचाया। इसी शैली ने उन्हें यूरोप और अमरीका में विख्यात कर दिया। उनके लिए लोग दीवाने हो जाया करते थे। उनके नृत्य के बाद लोग घंटों सम्मोहन में रहते थे। इंग्लंड के मशहूर नृत्य समीक्षक रिचर्ड ऑस्टिन के मुताबिक- “एक तरह से वह एक ऐसी नृत्यांगना थी जो किसी शास्त्रीय अध्ययन और प्रशिक्षण की देन होने की बजाय विशुद्ध प्रकृति की पैदाइश थी।” खुद इज़ादोरा आत्मकथा में यह कहती भी हैं कि उनका बचपन संगीत और काव्य से भरा था। इसका स्रोत उनकी माँ थी जो पियानो पर संगीत बजाने में इतनी खो जाती थी कि कई बार रात से सुबह हो जाया करती थी।
इज़ाडोरा ‘माय लाइफ’ में कई जगह अपनी कला यानि नृत्य से जुड़े अपने विचार रखती हैं। वे कई घंटों तक आत्म केन्द्रित होकर उस आयाम को खोजती रही थीं जो मनुष्य की सर्वोच्च आकांक्षाओं को अभिव्यक्त कर सके। उन्होंने गति के उस सिद्धान्त की खोज की जो मन, मस्तिष्क और संवेगों से जुड़ा हुआ था। वे कहती हैं- “… मन की, आत्मा की वह जागृति चाहिए जिसके द्वारा हम अपने शरीर के सभी संवेगों को और अपने अंगों की सभी क्रियाओं को महसूस कर सकें। एक तरह से मन, शरीर औए मस्तिष्क का पूरा तालमेल।” एक जगह इज़ाडोरा ‘प्रिमाविरा’ पेंटिंग से प्रभावित होकर अपने ‘डांस ऑफ फ्यूचर’ की ईजाद भी करती हैं। इसमें इस नृत्य के माध्यम से ज़िंदगी की भव्यता और उसके चरम आनंद का संदेश देना उनका लक्ष्य था।
ऐसे ढेरों उदाहरण उनकी आत्मकथा में भरे पड़े हैं जहां वे अपनी कला के प्रति पूरी तरह से समर्पित और आत्मा से जुड़ी हुई दिखाई देती हैं। खुला हाथ और स्कूल को बनाए रखने के कारण उन्हें हर जगह अपने नृत्य कार्यक्रम पेश करने होते थे। पूरी आत्मकथा में कहीं भी वे यह नहीं कहती कि इस ज़िंदगी से वे ऊब गई हैं। बल्कि ज़िंदगी से मिले दुखों में वे हमेशा नृत्य की ओर मुड़ती हैं।
जरा सोचिए कि आज के समय में हमारे समाज में उन लड़कियों या औरतों को लेकर हम क्या सोच बनाते हैं जिनके बिना विवाह के बच्चे हो जाते हैं। आज के दौर में तो फिर भी एक समझ धीरे धीरे विकसित हो रही है। पर नीना गुप्ता (अभिनेत्री) ने जब बिना विवाह अपनी बेटी को जन्म दिया तब उन्हें क्या क्या सुनना पड़ा था। अपने कई इंटरव्यूज़ में वे बार बार इसका ज़िक्र भी करती हैं। आज भी यदि कोई महिला पिता के नाम के बिना अपने बच्चे का स्कूल में दाखिला करवाने जाती है तब कितनी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। कितने ही गलत विचारों और मानसिकता से टकराना पड़ता है।
इज़ाडोरा ने बचपन से अपनी माँ की दुखद और दयनीय स्थिति देखी थी। इसलिए वे शादी जैसी संस्था को कड़े आलोचनात्मक नज़रिये से देखती थीं। वे स्वतंत्र मस्तिष्क वाली स्त्री की बात करती हैं। ‘माय लाइफ’ में वे लिखती भी हैं- “आज से बीस वर्ष पहले (1905 में) जब मैंने विवाह करने से इंकार किया और बिना विवाह के बच्चे पैदा करने के अधिकार का इस्तेमाल करते हुए दिखाया तब अच्छा-खासा हँगामा हुआ था।” उनके मुताबिक,“विवाह संस्था की नियम संहिता को निभा पाना किसी भी स्वतंत्र दिमाग की स्त्री के लिए संभव नहीं है।”
इतना ही नहीं वे समाज और परिवार के संकुचित विचारों को भी निशाना बनाती हैं। उनकी मौसी आगस्ता के जीवन की बरबादी वे परिवार के संकुचित विचारों के कारण ही मानती हैं। मौसी को नृत्य-नाटिकाएँ करने का शौक था। वह थिएटर में काम को लेकर उत्साहित रहती थीं। पर उनके नाना नानी को यह पसंद नहीं था। मौसी की कलात्मक प्रतिभा के खत्म होने को इज़ाडोरा इसी संकुचित सोच को मानती हैं। अपनी मृत्यु के कुछ वर्षों पहले जब वे रूसी नौजवान कवि से विवाह भी करती हैं तब उसके पीछे की वजहों को जानकार पता चलता है कि उनके मन में विवाह के प्रति विचारों में कोई खास अंतर नहीं आया था।
इज़ाडोरा और उनके अन्य भाई-बहन ने अपनी भावनाएँ और कला को दबाने के बजाय उसे निखारा और ताउम्र उसके प्रति समर्पित भी रहे। अपनी कला और उसको और ऊंचाई तक ले जाने के लिए वे लगभग योरोप भ्रमण से लेकर रूस तक घूमे। अपने संघर्ष के दिनों में वे शिकागो, न्यूयॉर्क और लंदन तक ठोकरे खाते रहे।इस दरमियान वे कई बार भूखे रहे तो कई बार बिना छत के इधर उधर भटकते रहे।
इज़ाडोरा की आलोचना का एक कारण उनके और कई पुरुषों के बीच के संबंध भी रहे। उनकी ज़िंदगी में कई पुरुष आए और गए। उनका पहला प्रेम का भाव पोलिश चित्रकार इवान मिरोस्की के लिए था। वह उम्र में काफी बड़ा था और इज़ाडोरा बेहद कम उम्र की थीं। लेकिन यह प्रेम प्रसंग आगे न बढ़ पाया क्योंकि इज़ाडोरा को कुछ बनने के जुनून ने कला की कदर के लिए दूसरे शहर में जाने को मजबूर कर दिया। बाद में उनके भाई ने जब इस चित्रकार के बारे में छानबीन की तो पाया कि यह पहले से शादीशुदा है। इसके बाद हंगेरियन अभिनेता ऑस्कर बरजी से उनके प्रेम संबंध रहे। इतिहासविद् हेनरीख थोड से भी गहराई में प्रभावित हुई और आध्यात्मिक प्रेम के पक्ष को भी जाना। मंच सज्जाकार गार्डन क्रेग से प्रेम संबंध काफी सुखद रहे और इन्हीं से सन् 1905 में अपनी पहली संतान द्रेद्रे को जन्म दिया।
गार्डन क्रेग का साथ लंबा चला. पर उसके साथ रहने के लिए इज़ाडोरा को तालमेल बिठाना पड़ा। ‘माय लाइफ’ में वह एक जगह जिक्र करती हैं- “यह मेरी नियति थी कि मैं इस जीनियस के महान प्रेम को प्रेरित करूँ और यह भी मेरी नियति थी कि उसके प्रेम के साथ अपने करियर का तालमेल बिठाने का अथक प्रयत्न करूँ।” क्रेग कई बार इज़ाडोरा को अपने काम और कला को छोड़ने की बात कहता था। उसकी सलाह थी कि घर पर रह कर वह उसकी पेंसिलों की नोकें तैयार करे। यही वजह भी रहे कि उनके सम्बन्धों में खटास भी मिलती चली गई।
एक बड़े नृत्य स्कूल खोलने के सपने ने उन्हें सिंगर मशीन कंपनी के वारिस पेरिस सिंगर से मिलाया। सिंगर के साथ इज़ाडोरा ने अपने चरम पर जाकर एश्वर्य का जीवन जिया और इन्हीं से सन् 1911 में एक बच्चे पेट्रिक को भी जन्म दिया। सिंगर से हुए मन मुटाव के बाद भी कई लोग आए और गए। पर इज़ाडोरा इनसब के साथ अपने नृत्य और स्कूल को कभी नहीं भूलीं। नृत्य उनके लिए जीवन था।
इस सब प्रेम सम्बन्धों के चलते उन्हें बहुत कुछ सहना भी पड़ा। लेकिन उन्हों ने इसकी ज़्यादा परवाह नहीं की और अपने काम में लगी रहीं। एक आकस्मिक दुर्घटना में उनके दोनों बच्चों के डूब के मर जाने का सदमा उनके साथ ताउम्र रहा और वह इस सदमे से कभी भी उबर नहीं पाईं। यह समय 1913 का था। इस बीच वह तमाम जगह राहत पाने के लिए भटकती रहीं। वे एक बार फिर गर्भवती हुईं पर यह तीसरा बच्चा भी जल्दी ही मृत्यु को प्राप्त हुआ। इसके बाद मानसिक रूप से वह बहुत टूट चुकी थीं। मरने के खयाल तक ने उनके दिमाग में दस्तक दे थी। पर फिर भी वे वापसी करती हैं। यही वजह है कि इज़ाडोरा मामूली चरित्र बनकर नहीं रह जातीं।
हालातों से टकराते हुए वे रूस से आए न्योते को स्वीकार करती हैं और वहीं के एक युवा कवि से सन् 1922 में विवाह भी करती हैं। यह चौंका देने वाली घटना थी। लेकिन इसके पीछे की पृष्ठभूमि को समझना होगा। उनकी एक प्रिय शिष्या इस बारे में अहम जानकारी देती है। 1922 को इज़ाडोरा की माँ का निधन अमरीका में होता है। इसके साथ ही उन्हें रूस में स्कूल चलाने की दिक्कतें और रुपयों की कमी ने आ घेरा था। इसके अलावा सेर्जी एसेनिन जो उनका युवा पति था, काफी बीमार रहने लगा था। इसलिए उसे एक बेहतर इलाज़ और अमरीका और यूरोप की यात्रा के जरिये रचनात्मकता का बेहतर माहौल देना चाहती थीं। बिना विवाह के पासपोर्ट या यात्रा मुश्किल थी। अत: उन्हों ने मई में इस युवा कम उम्र कवि से विवाह कर लिया। एक वजह यह भी थी वे इस व्यक्ति में अपने बेटे का चेहरा भी पाती थीं और मोहित भी थीं।
इस विवरण से स्त्री पुरुष सम्बन्धों की झलक भी मिलती है। उनके आलोचक उनके वफादार न होने का उन पर इल्ज़ाम लगते हैं। पर वहीं पुरुषों को इस तरह की आलोचनात्मकता का सामना नहीं करना पड़ता। उनकी आत्मकथा के हिन्दी अनुवादक युगांक धीर लिखते भी हैं कि इज़ाडोरा अपने समय से काफी आगे थीं। अनुवादक की ओर से लिखे नोट में वे लिखते हैं“…एक सहज स्वाभाविक स्वतंत्र स्त्रीत्व की तलाश। एक ऐसी स्वतन्त्रता जिसका अर्थ सिर्फ ‘पुरुषों से मुक़ाबला’नहीं—‘स्त्रीत्व को त्यागकर ‘पुरुषत्व’ अपना लेना नहीं—बल्कि एक स्त्री के रूप में जीते हुए, अपने स्त्रीत्व का पूरा आनंद उठाते हुए,‘प्रेमत्व’ और ‘मातृत्व’ दोनों का सुख भोगते हुए, अपनी क्षमताओं और प्रतिभाओं की, अपनी आकांक्षाओं और अपने सपनों की असीम संभावनाएँ तलाशना।” इज़ाडोरा कुल मिलाकर यही चरित्र थीं।
समीक्षक – श्री सुरेश पटवा
≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈