☆ पुस्तक समीक्षा ☆ सिलसिला चलता रहेगा – डॉ मुक्ता ☆ समीक्षा – सुश्री सुरेखा शर्मा ☆

पुस्तक – सिलसिला चलता रहेगा (काव्य-संग्रह )

लेखिका -डाॅ• मुक्ता

प्रकाशक – समदर्शी प्रकाशन, मेरठ (उ•प्र•)

संस्करण – प्रथम जुलाई 2021

पृष्ठ संख्या – 120

मूल्य – 160₹

निर्मम सच्चाईयों से परिचय करवाती कविताएँ – सुश्री सुरेखा शर्मा

सुश्री सुरेखा शर्मा

 ‘ऐ मनवा !

 चल इस जहान को तज

 कहीं और चलें

 जहाँ न हो कोई भी तेरा-मेरा

 और न हो ग़मों का बसेरा

 वहीं अपना आशियाना बसाते हैं।’

उपर्युक्त काव्य-पंक्तियाँ हैं वरिष्ठ साहित्यकार, शिक्षाविद्, पूर्व निदेशक हरियाणा साहित्य अकादमी, माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत डाॅ मुक्ता जी के नवीनतम काव्य-संग्रह ‘सिलसिला  चलता रहेगा ‘ की कविता ‘मेरी तन्हाई ‘ से। कोरोना काल में जहाँ हमें स्वयं के बारे में ही सोचने का समय नहीं मिल रहा था, वहीं विदुषी डाक्टर मुक्ता जी ने अपने अनुभवों, अपनी संवेदनाओं एवं गंभीर चिंतन को शब्दों के माध्यम से अपनी अभिव्यक्ति कविताओं के रूप में दी है। ‘सिलसिला चलता रहेगा ‘काव्य-संग्रह  छोटी-बड़ी 82 कविताओं को समेटे हुए है। पहली कविता ‘संस्कृति और संस्कार’ से लेकर अंतिम कविता ‘संस्कार व अहंकार’ कविताएं अपने भीतर संकेतों और बिम्बों के साथ दर्द, आकुलता और बेचैनी की छटपटाहट लिए हुए हैं। तनाव-ग्रस्त जीवन में यथार्थ का बोध व्याप्त है । शीर्षक कविता ‘सिलसिला चलता रहेगा ‘ की कुछ पंक्तियाँ बानगी के रूप में देखिए —– हैरान हूँ यह सोचकर/ कैसे जिन्दगी गुज़र गई/ होंठ सिए/ ज़िल्लत सहते-सहते/ पर उसे कोई रहनुमा न मिला/ वह दरिंदा सितम ढाता रहा / और वह मासूम ज़ुल्म सहती रही’

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित)

कवयित्री के स्वर में आक्रोश है; जीवन के यथार्थ को पकड़ने की आकुलता है, जो संवेदनहीनता और समय की विसंगतियों को प्रस्तुत करती व मनोमस्तिष्क को झकझोरती हैं। बहुत कुछ अनकहा हृदय में गूँजता रहता है; कल्पना का आदर्श और यथार्थ का भयावह रूप पाठक को झिंझोड़ता है। ‘देश जल रहा है’, ‘शर्म आती है’, ‘ज़मीर’ व ‘वजूद’ कविताएं मानो कवयित्री के रक्त में प्रवाहित होती रहती हैं और वे उसी प्रकार पाठक की भावनाओं को भी कुरेदती हैं।

एक बानगी देखिए – ‘शर्म आती है यह सोच कर/हम उस देश के वासी हैं/ जहाँ एक मिनट में होता है/ चार महिलाओं की/ अस्मत से खिलवाड़  / सामूहिक बलात्कार ही नहीं होता/ उन्हें जिंदा जलाया जाता है।’

एक और उदाहरण —‘मेरा देश जल रहा /धर्म, जाति, मज़हब के /असंख्य शोलों से दहक रहा/ धू-धू कर जल रहे लोगों के घर /उन्माद में अग्नि की भेंट ।’ 

कविता का एक-एक शब्द चोट करता हुआ प्रतीत होता है। आज जब कदम-कदम पर आतंकी प्रलय की सिहरन हमें बेचैन करती है और इंसानियत स्वार्थ के पापकुण्ड में डूब चुकी है। कविता “लग गया ग्रहण” को पढ़कर पाठक इसी मनःस्थिति से स्वयं को गुज़रता हुआ पाता है। किसी भी रिश्ते पर विश्वास नही रहा–ये पंक्तियाँ देखिए– ‘हैरत होती है यह देखकर/ रिश्तों को लग गया ग्रहण/ नहीं रहा कोई भी रिश्ता पावन/ पंद्रह वर्षीय किशोरी के साथ/ भाई करता रहा दुष्कर्म।’

‘सिलसिला चलता रहेगा’ मनुष्य के हृदय पर दस्तक देता, कचोटता व झिंझोड़ता ऐसा काव्य-संग्रह है, जो एक ऐसे चिन्तन का आग्रह करता है; जहाँ मानवीयता को बचाए रखना ज़रूरी है। इस संग्रह की कविताओं में पीड़िता व उपेक्षिता की वेदना को सूक्ष्मता से चित्रित किया गया है। कवयित्री  ने समय और परिस्थितियों को अपनी लेखनी से कागज़ पर बखूबी उकेरा है। कवयित्री ने नितांत निजी भावों में कविताएँ रची हैं तथा वे अपने परिवेश के घटनाक्रम के साथ विभिन्न प्रकार की विषम व असामान्य परिस्थितियों में घर-परिवार, समाज और देश की चिंता ही नहीं करतीं, बल्कि वे भारतीय संस्कृति की पक्षधर हैं। सो! उन्होंने नयी-पुरानी पीढ़ी की विचारधारा से संबंधित सभी पहलुओं को उजागर किया है। ‘सवाल उठने लगे’,’मर्मांतक व्यथा’, ‘दहलीज़ ‘, ‘अंतर्मन की चीत्कार’, ‘पहचाना मैम’ जीवन-संघर्ष से सरोकार रखती ऐसी संवेदनशील कविताएँ हैं, जिन में गहन मर्म छिपा है। समाज में घट रही घटनाओं को जीवन का कटु सत्य मानकर कवयित्री का संवेदनशील मन चीत्कार कर उठता है। ‘अन्तर्मन की चीत्कार’ कविता की बानगी द्रष्टव्य है —

‘चार दिसंबर प्रातः/अखबार हाथ में लेते ही/  हृदय आहत हुआ/ अंतर्मन चीत्कार कर उठा/ नौ साल की बच्ची से पिता द्वारा दुष्कर्म /आठ साल की बच्ची का बलात्कार/ दस वर्ष की मासूम  बच्ची ••••हवस का शिकार हुई /ये घटनाएँ अंतर्मन को झिंझोड़ती हैं/ आखिर क्यों•••कब तक चलेगा यह सिलसिला••••?/ यह प्रश्न हृदय को कचोटता /हर पल उद्वेलित करता।’ संग्रह की कविताओं में दम तोड़ते मूल्य, समाजिक विघटन एवं तार-तार होते पारिवारिक रिश्तों पर आक्रोश  प्रकट किया गया है।

आत्मा की अभिव्यक्ति के साथ कविता का संवेदन तत्व संपूर्ण जगत् से जुड़ता है। इन तमाम जटिलताओं के होते हुए भी कविता हमारी संवेदना के क़रीब प्रतीत होती है। इस  काव्य-संग्रह में उन सभी अवांछित विद्रूपताओं व विसंगतियों का उल्लेख हुआ है, जो आज समाज में घटित हो रही हैं। भारतीय संस्कारों के स्खलन व सामाजिक-मूल्यों के विघटन के कारण जीवन-शैली में अनुभूत बदलावों का भी कवयित्री ने अपनी कविताओं में बेबाक वर्णन किया है। ‘सिलसिला चलता रहेगा’ काव्य-संग्रह की प्रथम कविता ‘संस्कृति और संस्कार’ की बानगी देखते हैं, जो उपर्युक्त कथन की पुष्टि करती है– ‘संबंध-सरोकार मुँह छिपा रहे/ और अजनबीपन एहसास/ सुरसा के मुख की भाँति पाँव पसार रहा/ नहीं रहा किसी को किसी से सरोकार/ विश्वास हर किसी को छल रहा।’ इसी प्रकार —-‘धन, पैसा, रुतबा/ हरदम साथ निभाते नहीं/ संसार मृगतृष्णा/ इनसान व्यर्थ ही इसके पीछे/ बेतहाशा दौड़ा चला जाता/ अंतिम  समय में/ कुछ भी उसके साथ जाता नहीं।’

‘सिलसिला चलता रहेगा’ की कविताओं को वाह-वाह की नहीं, अपितु आह व दर्द की अनुभूति की आवश्यकता है। करुणा कविता की जननी है। इसलिए बिना आह के कविता अधूरी है। किसी की पीड़ा को महसूस करना संवेदनशील व्यक्ति की पहचान होती है और उस पीड़ा को शब्दों में पिरो डालना कवयित्री की विशेषता है। एक बानगी देखिए – ‘बलात्कार पीड़ित लड़की/ जो पहले आज़ादी से घूमती थी/वही आज डरी-सहमी सी रहती है,’ उस मासूम की अंतहीन पीड़ा को अभिव्यक्ति प्रदान करती है।

इसी श्रृंखला में ‘किसान और सैनिक’ कविता की कुछ पंक्तियाँ देखिए, जो हृदय में टीस पैदा करती हैं— ‘किसान का आत्मज/ जब सीमा पार शहीद होता/ हृदय क्रन्दन कर उठता/ और दसों दिशाएँ कर उठती चीत्कार/ हवाएँ सांय-सांय कर/ धरा को कंपायमान करती/ और जीवन में सुनामी आ जाता।’

इस संग्रह में समाहित कविताओं के विषय बहुआयामी हैं। कवयित्री ने मानव जीवन के प्रत्येक पहलू का बहुत ही सूक्ष्मता से अध्ययन किया है, जीवन के कटु यथार्थ को उसकी पूर्णता में देखा है। बूढ़े माँ-बाप के प्रति बच्चों के असंवेदनशील व्यवहार को कवयित्री ने ‘मर्मांतक पीड़ा’  कविता में व्यक्त किया है। बच्चों की अपने माँ-बाप के प्रति असंवेदनशीलता को जिस ढंग से व्यक्त किया है, वह समाज के कटु यथार्थ  से परिचय कराता है– ‘बेटे ने विवाहोपरांत/ उसे घर से बाहर का रास्ता दिखाया/ और वह वर्षों से झेल रही है/ मर्मांतक पीड़ा/ नहीं समझ पाता मन/ जिसने अपने मुँह का निवाला/ अपनी संतान को खिलाया/ वही पड़ी है आज बेहाल/

शायद ! प्रतीक्षारत।’ कविता सिर्फ़ किसी दर्द का इतिहास ही नहीं, बल्कि खुशी का गीत भी होती है। कविता को जहां आत्मा की अभिव्यक्ति कहा गया है, वहीं कविता कर्म भी है। अनेक मनोभावों को व्यक्त करती ‘सिलसिला चलता रहेगा’ की कविताएँ स्वयं इसके शीर्षक को सार्थक करती हैं। कविताओं का जीवन के साथ जुड़ाव है और वे पाठक के साथ सीधा संवाद करती प्रतीत होती हैं। नि:संदेह आज के सामाजिक परिवेश में कदम-कदम पर स्वार्थी व मुखौटाधारी लोगों से अक्सर सामना होता रहता है। ‘ये कैसे रिश्ते’ कविता के माध्यम से कवयित्री ने ऐसे लोगों के चेहरे से मुखौटा उतारने का बखूबी प्रयास किया है; जिनका व्यवहार अंधेरे में अशोभनीय व निंदनीय होता है और दिन के उजाले में उससे सर्वथा विपरीत भासता है। इसका सशक्त उदाहरण द्रष्टव्य है—‘पिता के दोस्त की छात्रा को/ काॅलेज छोड़ने और लेने जाना/ रास्ते में ज़ोर-ज़बरदस्ती करना/ खेतों में ले जाकर दुष्कर्म का प्रयास/ भाई की उपस्थिति में अश्लील हरकतें/ यह कैसे रिश्ते/ यह कैसा जग-व्यवहार/  जहाँ अपने, अपने बनकर/ कर रहे मासूमों का शील-हरण।’    

डाॅ मुक्ता संवेदनशील कवयित्री हैं। उनके मन की छटपटाहट समाज के उपेक्षित वर्ग तक पहुंचती हैं और उनका हृदय करुणा, प्रेम और दर्द से आप्लावित है, मानो दर्द का समन्दर ठाठें मार रहा है। कवयित्री ने अपने दिल के दर्द व आक्रोश को अपनी रचनाओं का आधार बनाया है। शब्द-चित्र खींचती-सी सभी कविताएँ अपने मन में गहन अर्थबोध सेमेटे हुए हैं और तप्त हृदय को शांत करती हैं। कविताओं में बिंबों के साथ-साथ प्रतीक, लक्षणा एवं व्यंजना का सौंदर्य झलकता है। यह संग्रह कवयित्री के अनुभवों, संवेदनाओं और अनुभूतियों का दस्तावेज़ है। ‘यक्ष प्रश्न’, ‘गांधारी’, ‘शबरी’, ‘धरती पुत्री’ आदि कविताएं कवयित्री की मानसिक प्रौढ़ता को प्रकट करती हुई विकास और विस्तार को आयाम देती हैं। ये कविताएं समकालीन कविताओं में अपना महत्वपूर्ण स्थान बनाएंगी।

उपरोक्त कृति में लंबी कविताएँ भी हैं, जिनमें जीवन के विविध नाद हैं  – ‘गांधारी नहीं निर्भया’ कविता देखिए -‘नारी! तुम्हें गांधारी नहीं/ निर्भया बनना है/ आँखों पर पट्टी बाँध /पति के आदेशों की पालना नहीं/ दुर्गा व काली सम/ शत्रुओं  का मर्दन करना है।’

कवयित्री ने अपनी लेखनी से शब्दों को नये तेवर के साथ कवितओं में ढाला है। कवयित्री के अंतर्मन में एक सागर अहर्निश उथल-पुथल करता रहता है, जिसमें भावों का मन्थन चलता है। आजकल रिश्ते टूटते जा रहे है और उनकी अहमियत रही नहीं;  हम एक-दूसरे से दूर अपने-अपने द्वीप में कैद होते जा रहे हैं। आजकल अक्सर घरों में संवादहीनता के कारण सन्नाटा पसरा रहता है; मतभेद के साथ-साथ मनभेद होते हैं। इन असामान्य परिस्थितियों में कवि मन का उद्वेलन कागज़ पर उतरकर कविता का रूप धारण कर लेता है। ‘आलीशान इमारतें’ कविता इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है, तनिक बानगी देखिए— ‘आलीशान घरों की/ इमारतों के अहाते में/ पारस्परिक वैमनस्य फलता-फूलता / ईर्ष्या- द्वेष का एकछत्र साम्राज्य होता/ अजनबीपन का एहसास होता/ जहां मतभेद नहीं/ मनभेद सदैव हावी रहता/ क्योंकि संवादहीनता /संवेदनहीनता की जनक होती।’

‘सिलसिला चलता रहेगा’ संग्रह की कविताएँ पठनीय ही नहीं, चिंतनीय व मननीय हैं। ‘संस्कृति और संस्कार’ से शुरू होकर ‘अंतिम कविता  ‘संस्कार व अहंकार’ शीर्षक से है। इन सभी कविताओं में आज के समय की विद्रूपता, विडम्बना, शोषण, बलात्कार का चेहरा बार-बार दिखायी देता है। इन कविताओं में अकुलाहट है,  छटपटाहट है, बेबसी है।  ‘उन्नाव की पीड़िता’ ऐसी ही एक लंबी कविता है, जिसमें कवयित्री के मन की वेदना-पीड़ा अत्यंत मार्मिक शब्दों में अभिव्यक्त हुई है। कुछ पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं — ‘उन्नाव की पीड़िता/ एक वर्ष नौ दिन/ ज़ुल्मों के प्रहार सहन करती रही/ तिल-तिल कर जीती- मरती रही/ चार दरिंदों द्वारा बलात्कार/ पीड़िता असहाय दशा में/ हर दिन नये ज़ुल्म का शिकार होती रही।

☆☆☆☆☆      

 हम उनकी बेहाली पर/ मन मसोसकर रहे जाएंगे/ और आँसू बहाने के सिवाय/ कुछ कर नहीं पाएंगे ।’

‘सिलसिला चलता रहेगा’ संग्रह की कविताओं में समसामयिक चिंताओं से लेकर वैश्विक चिंतन तथा देश-विदेश की घटनाओं तक को अभिव्यक्ति प्राप्त है। आज के युग में सुरसा के मुख की भांति बढ़ती संवेदनहीनता प्रमुख चिंता का विषय है। कविताओं के विषय रोज़मर्रा की ज़िन्दगी के उतार-चढ़ाव हैं, जो कभी खुशी दे जाते हैं, तो कभी नितांत उदासी। इसलिए ही  कवयित्री कहती हैं—-‘लम्हों की किताब है ज़िन्दगी/ जिसमें अंकित रहता/ जीवन-भर का लेखा-जोखा/ सुख-दु:ख, खुशी-ग़म, हानि लाभ/

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जो मिला है/ उसमें संतोष पाएँगे/ जो नहीं मिला/ उसे पाने का सार्थक प्रयास/ ताकि चलता रहेगा खुशी से/ ज़िन्दगी का यह सिलसिला ।’ ये कविताएँ सरल भाषा में पाठकों से दैनिक संवाद करती भासती हैं। कविताओं में जीवन के अनेक रंग हैं, आत्मचिंतन है, स्मृतियाँ हैं, समकालीन विचारधारा की सोच है। भाषा सरल, सहज व सुगम्य है । कहीं-कहीं गद्यात्मकता का अनुभव भी होता है। काव्य-संग्रह पठनीय ही नहीं, संग्रहणीय भी है। कवयित्री ने जीवन के कटु यथार्थ व मार्मिक अनुभूतियों को सत्यता से स्वीकार कर बखूबी उकेरा है, जो श्लाघनीय है। ये कविताएं मानो कवयित्री की आत्मा की पुकार हैं, जो सामान्य-जन के लिए न्याय की मांग करती हैं। ‘सिलसिला चलता रहेगा ‘काव्य-संग्रह का हिन्दी जगत् में हृदय से स्वागत किया जाएगा। डाक्टर मुक्ता जी को इस कृति के लिए हार्दिक बधाई व शुभकामनाएँ। वे स्वस्थ रहें एवं दीर्घायु हों और अपनी लेखनी से साहित्य मोती लुटाती रहें।

शुभकामनाओं के साथ  —-

सुरेखा शर्मा लेखिका /समीक्षक

पूर्व हिन्दी सलाहकार सदस्या नीति आयोग दिल्ली।

हिन्दी सलाहकार सदस्या हिन्दुस्तानी भाषा अकादमी दिल्ली।

संयुक्त मंत्री प्रादेशिक हिन्दी साहित्य सम्मेलन( प्रयाग) गुरुग्राम।

498/9-ए सेक्टर द्वितीय तल, नज़दीक  ई•एस•आई• अस्पताल, गुरुग्राम – पिन कोड -122001.

मो•नं• 9810715876

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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Sudershan Ratnakar

‘सिलसिला चलता रहेगा ‘ काव्य संग्रह के लिए एवं बहुत ही सुंदर सटीक समीक्षा के लिए सुरेखा जी को हार्दिक बधाई।