श्री संजय भारद्वाज
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
औरत की लाज-सी
खींचकर धरती की हरी चुनर
उतार दिया जाता है,
पिघलता लोहा
उसकी कोख में,
सरियों के दम पर
खड़ी कर दी जाती हैं
विशाल अट्टालिकाएँ,
धरती के सीने पर
बिछा दिया जाता है
काँक्रीट, सीमेंट, रेत ऐसे
किसी नराधम ने मासूमों को
चुनवा दिया हो जैसे,
विवश धरती अपनी कोख में
पथरीली आशंका के साथ
छिपा लेती है
हरी संभावनाएँ भी,
समय बीतता है
साल दर साल इमारत
थोड़ी-थोड़ी खंडहर होती है,
धरती की चुनर
शनैः-शनैः हरी होती है,
इमारत की बुनियाद
झर जाती है
धरती की कोख
भर आती है,
खंडहर ढक जाता है
उन्हीं पेड़-पौधों,
घास-फूल-पत्तियों से
जिनके बीज
कभी पेट में छिपा लिये थे
धरती ने…!
© संजय भारद्वाज, पुणे
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मोबाइल– 9890122603