श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – सीसीटीवी ??

शहर में लगे सीसीटीवी कैमरों से उसका धंधा लगभग चौपट हो चला था। मॉल, दुकानें, बंगले, सोसायटी कोई जगह नहीं छूटी थी जहाँ सीसीटीवी नहीं था। अनेक स्थानों पर तो उसी की तरह चोर कैमरा लगे थे। सब कुछ रेकॉर्ड हो जाता।

आज सीसीटीवी और चौकीदारों को मात देकर वह उच्चवर्ग वाली उस सोसायटी के एक फ्लैट में घुस ही गया। तिजोरी तलाशते वह एक कमरे में पहुँचा और सन्न रह गया। बिस्तर पर जर्जर काया लिए एक बुढ़िया पड़ी थी जो उसे ही टकटकी लगाये देख रही थी। बुढ़िया की देह ऐंठी जा रही थी, मुँह से बोल नहीं निकल रहे थे। शायद यह जीवन को विदा कहने का समय था।

क्षण भर के लिए किंकर्तव्यविमूढ़ हुआ। फिर निश्चिंत होकर अपने काम में जुट गया। बहुत जल्दी नकदी और कुछ जेवर उसके हाथ में थे। ऐहतियातन उसने दो-तीन बार बुढ़िया को देखा भी। मानो कुछ कहना चाह रही हो या पानी मांग रही हो या परिजनों को जगाने की गुहार लगा रही हो। लौटते समय उसने अंतिम बार बुढ़िया की ओर देखा। देह ऐंठी हुई स्थिति में ज्यों की त्यों रुक गई थी, आँखें चौड़ी होकर शून्य ताक रही थीं।

लौटते हुए भी उसे सीसीटीवी कैमरों से अपना बचाव करना पड़ा। खुश था कि बहुत माल मिला पर अजीब बेचैनी निरंतर महसूस होती रही। बुढ़िया की आँखें लगातार उसे अपनी देह से चिपकी महसूस होती रहीं। पहले टकटकी लगाए आँखें, फिर आतंक में डूबी आँखें, फिर कुछ अनुनय करती आँखें और अंत में मानो ब्रह्मांड निहारती आँखें।

अमूमन धंधे से लौटने के बाद वह गहरा सो जाता था। आज नींद कोसों दूर थी। बेचैनी से लगातार करवटें बदलता रहा वह। उतरती रही उसकी आँखों में सीसीटीवी कैमरों से बचने की उसकी जद्दोज़हद और बुढ़िया की आँखें। आँखें खोले तो वही दृश्य, बंद करे तो वही दृश्य। प्ले, रिप्ले…, रिप्ले, रिप्ले, रिप्ले। वह हाँफने लगा।

आज उसने जाना कि एक सीसीटीवी आदमी के भीतर भी होता है। कितना ही बच ले वह बाहरी कैमरों से, भीतर के कैमरा से खींची तस्वीर अमिट होती है। इसे डिलीट करने का विकल्प नहीं होता।

उसका हाँफना लगातार बढ़ रहा था और अब उसकी आँखें टकटकी बांधे शून्य को घूर रही थीं।

© संजय भारद्वाज 

रात्रि 1: 52 बजे, 8.7.2019

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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☆ आपदां अपहर्तारं ☆

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संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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