श्री संजय भारद्वाज
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
संजय दृष्टि – आलेख – शब्दों से उभरती ‘हस्ती’ की हस्ती – स्व. हस्तीमल जी ‘हस्ती‘
हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी
जिसको भी देखना हो कई बार देखना
किसी भी व्यक्ति को जानने, समझने के लिए उससे बार-बार मिलना-जुलना पड़ता है। उसके साथ समय बिताना पड़ता है। निदा फ़ाज़ली का उपरोक्त शेर इसी जीवन दर्शन की पुष्टि करता है।
वस्तुतः मनुष्य का स्वभाव सामान्यतया धीरे-धीरे खुलने का है और तदुपरांत ही उस पर कोई राय बनाई जा सकती है। अलबत्ता किसी साहित्यकार से परिचित होने के लिए आवश्यक नहीं कि उससे मिला ही जाए। कवि, लेखक के शब्दों को बाँचा जाए, भावों को समझा जाए तो उन शब्दों से कलमकार का प्रतिबिम्ब उभरता है। प्रस्तुत आलेख बहुचर्चित ग़ज़लकार हस्तीमल ‘हस्ती’ जी के व्यक्तित्व को उन्हीं के सृजन के माध्यम से समझने का प्रयास है।
जब कभी कविता/ नज़्म / ग़ज़ल की बात चलती है तो वर्तमान स्थितियों में उसकी प्रयोजनीयता पर प्रश्न उठाया जाता है। इस सार्वकालिक प्रश्न का उत्तर आचार्य रामचंद्र शुक्ल के इस कथन में अंतर्निहित है कि ” कविता इतनी प्रयोजनीय वस्तु है कि संसार की सभ्य और असभ्य सभी जातियों में पाई जाती है। चाहे इतिहास न हो, विज्ञान न हो, दर्शन न हो पर कविता अवश्य ही होगी। इसका क्या कारण है। बात यह है कि संसार के अनेक कृत्रिम व्यापारों में फँसे रहने से मनुष्य की मनुष्यता के जाते रहने का डर रहता है। अतएव मानुषी प्रकृति को जाग्रत रखने के लिए ईश्वर ने कविता रूपी औषधि बनाई है। कविता यही प्रयत्न करती है कि प्रकृति से मनुष्य की दृष्टि फिरने न पाए।”
कविता की यह दृष्टि विधाता, हर मनुष्य को प्रदान नहीं करता। इसी अद्वितीय दृष्टि का वरदान हस्ती जी को मिला है। दृष्टि कलम में उतरती है और कविता की महत्ता को कुछ यों बयान करती है-
शायरी है सरमाया ख़ुशनसीब लोगों का
बाँस की हर इक टहनी बाँसुरी नहीं होती
कविता ऐसी औषधि है जो हर विषाद के बाद मानसिक विरेचन कर आदमी को शक्ति और उत्साह प्रदान करती है। कविता ऐसा हथियार है जो मनुष्य को नई लड़ाई के लिए खड़ा करता है। कवि का कवित्व, जीव को मनुष्य कर देता है। मनुष्य, ईश्वर से अकाट्य प्रश्न करता है-
जब तूने ही दुनिया का ये दीवान लिखा है
हर आदमी प्यारी सी ग़ज़ल क्यों नहीं होता
कवि की दृष्टि प्रचलित शब्दों को ऊपरी तौर पर ग्रहण नहीं करती बल्कि उनमें गहरे उतरती है। शब्द अपने अर्थ के विस्तार से झंकृत और चमत्कृत हो उठते हैं। स्थूल का सूक्ष्म दर्शन, साधारण-सी बात को अद्भुत कर देता है –
रहा फिर देर तक वो साथ मेरे
भले वो देर तक ठहरा न था
रहने और ठहरने का अंतर अनुभव से समझ में आता है। माना जाता है कि हर मनुष्य का जीवन एक उपन्यास है। भोगे हुए उपन्यास को पढ़कर, बुज़ुर्ग शायर अगली पीढ़ी को पढ़ाना चाहता है। उनकी चाहत, मनुष्य को बेहतर मनुष्य बनाने की है। ‘मैं’ के शिकार आत्ममुग्ध मनुष्य को वे एक शेर के माध्यम से ज़मीन पर उतार देते हैं-
तेरी बीनाई किसी दिन छीन लेगा देखना
देर तक रहना तेरा ये आईनों के दरमियां
दुनियावी आइनों के दरमियां रहने को तजकर मनुष्य जब मन के दर्पण में खुद को निहारने लगता है तो सत्य की राह दिखने लगती है। अलबत्ता सच और आफ़त का चोली-दामन का साथ भी है-
लड़ने की जब से ठान ली सच बात के लिए
सौ आफ़तों का साथ है दिन-रात के लिए
मराठी में कहावत है, ‘कळतं पण वळत नाही’ अर्थात ‘जानता है पर मानता नहीं। सच के वरक्स झूठ के पाँव न होने के त्रिकाल सत्य को हस्ती जी जैसा शायर ही इतनी सरलता से कह सकता है-
झूठ की शाख़ फल-फूल देती नहीं
सोचना चाहिए, सोचता कौन है
आदमी की आँख में इनबिल्ट जन्नत के सपने को शायर झिंझोड़ता है। सपने या अरमान बैठे-बैठे पूरे नहीं होते-
जन्नत का अरमान अगर है मौत से यारी कर जीते जी मिल जाए जन्नत ये कैसे हो सकता है
जन्नत का उदाहरण देनेवाला मूर्धन्य रचनाकार उसके रहस्य भी जानता है। इस रहस्य से वह सरलता और सादगी से पर्दा उठाता है-
जन्नत किसने देखी है
जीवन जन्नत जैसा कर
‘यू गेट लाइक वन्स, लिव इट राइट, वन्स इज इनफ़’ अर्थात जीवन एक बार ही मिलता है। पूर्णता से जिएँ तो एक बार पाया जीवन भी पर्याप्त है। आदमी की सोच उसे संकीर्ण या विस्तृत करती है। आदमी की दृष्टि में ही सृष्टि है। दृष्टि से उपजी सृष्टि की यह ख़ूबसूरत सीख देखिए-
अपने घर के आँगन को मत क़ैद करो दीवारों में दीवारें ज़िंदा रहती हैं लेकिन घर मर जाते हैं
घर को ज़िंदा रखना याने घर के हर घटक को उड़ने का, पंख फैलाने का अवसर देना। पक्षियों के टोले में जो पक्षी उड़ते समय आगे होता है, थक जाने पर वह पीछे आ जाता है। युवा पक्षी अपने डैने फैलाकर नेतृत्व का दायित्व ग्रहण करता है। पंछी हो या मनुष्य, जीवन का चक्र सबके लिए समान रूप से घूमता है। यह चक्र हस्तीमल ‘हस्ती’ की कलम से अपनी अनंत परिधि कुछ यों खींचता है-
कतना, बुनना, रंगना, सिलना, फटना, फिर कतना-बुनना
जीवन का यह चुक्र पुराना पहले भी था, आज भी है
जीवन का आरंभ होता है माँ की कोख से। विधाता को भी पृथ्वी पर अवतार लेने के लिए माँ की आवश्यकता पड़ती है। हस्ती जी के शब्द दीपक को माँ की उपमा देकर, माँ की भूमिका का ग़ज़ब का चित्र खींचते हैं-
आग पीकर भी रोशनी देना
माँ के जैसा है ये दिया कुछ-कुछ
कहते हैं कि मूर्तिकार को हर पत्थर में एक मूर्ति दिखाई देती है। वह मूर्ति के अतिरिक्त शेष पत्थर को अलग कर अपने काम को अंजाम तक पहुँचाता है। कुछ इसी तरह शब्दकार को हर बीहड़ में रास्ते की संभावना दिखती है-
रास्ता किस जगह नहीं होता
सिर्फ़ हमको पता नहीं होता
यह संभावना आज के विसंगत जीवन में अवसाद के शिकार युवाओं के लिए जीने का स्वर्णद्वार खोलती है। इस द्वार को देखने के लिए दृष्टि चाहिए तो खोलने के लिए कृति।
सूरज की मानिंद सफ़र पे रोज़ निकलना पड़ता है
बैठे-बैठे दिन बदलेंगे इसके भरोसे मत रहना
पौधा शनैः- शनैः वृक्ष बनता है। धूप में पली-बढ़ी पत्तियाँ छाया देने लगती हैं, पर छायादार होने के लिए जड़ें गहरी रखनी पड़ती हैं-
उसका साया घना नहीं होता
जिसकी गहरी जड़ें नहीं होती
जड़ों को हरा रखने, धरती से जोड़े रखने के लिए विद्या के साथ विनय का पाठ पढ़ना भी आवश्यक है। कहा भी गया है ‘विद्या विनयेन शोभते।’ ‘सादा जीवन उच्च विचार’ का भारतीय दर्शन आत्मसात किये बिना आदमी अधूरा है-
सादगी का सबक नहीं सीखा
मेरी तालीम में कमी है अभी
जड़ों से जुड़ना अर्थात मूल्यों से जुड़ना। मूल्यों से जुड़ना आस्तित्व को सार्थक करता है। मूल्यधर्मिता, जीवन को सुगंधित करती है-
मेरी ख़ुशबू ही मर जाए कहीं
मेरी जड़ से न कर जुदा मुझे
स्थितियाँ प्रतिकूल हों, पानी सिर के ऊपर से जा रहा हो, तब भी आँख का पानी बचाकर रखना चाहिए। अपनी आँख में अपना मान बना रहता है तो आदमी का कद भी टिका रहता है-
मिला दिया है पसीना भले ही मिट्टी में
हम अपनी आँख का पानी बचाके रखते हैं
अपने समय की विसंगतियों से शायर आहत है। धर्म का चेला ओढ़े सफेदपोशों के चंगुल में फँसे साधारण आदमी की स्थिति शब्दों में व्यक्त होती है-
अस्ल में मुज़रिम जो थे घर में खुदा के जा छुपे अब मसीहा रह गए हैं सूलियों के वास्ते
प्रार्थना के नाम पर पूजा पद्धति और तौर- तरीकों में उलझा आदमी कवि की दृष्टि से छूटता नहीं। उसके मन में प्रार्थना की परिभाषा को लेकर उमड़-घुमड़ है। यह उमड़-घुमड़ एक शेर के ज़रिए असीम आकार का प्रश्न खड़ा करती है-
‘हस्ती’ मंदिर मस्ज़िद में हम जो कुछ करके आते हैं
रब की नज़र में हो न इबादत ऐसा भी हो सकता है
संवेदना, मनुष्यता के लिए अनिवार्य तत्व है। इस तत्व के अतीत होने का चित्र सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है-
ग़ैर के दर्द से भी लोग तड़प जाते थे
वो ज़माना ही रहा ना वो ज़माने वाले
संवेदना के अभाव ने भले आदमियों को आउटडेटेड कर दिया है। भलमनसाहत विपन्नता का पर्यायवाची हो चुकी है।
जर्जर झुग्गी, टूटी खटिया, रूठी फसलें, रूठे हाल
भलमनसाहत का इस जग में मिलता है ये फल साईं
देश के लिए शहीद होना हर युग का धर्म है। विडंबना है कि अंतर्राज्यीय संघर्षों, पानी पर विवाद, धर्म और जाति पर दंगे, आतंकियों को बचाने के लिए अपने ही सैनिकों पर पत्थर फेंकते लोगों के चलते अपने ही घर में शहीद होने का क्रूर और वीभत्स चित्र आज का यथार्य है।
सरहद पे जो कटते तो कोई ग़म नहीं होता
है ग़म तो ये सर घर की लड़ाई में कटे थे
कोई कितना ही लिख-पढ़ ले, दुनिया भर की क़िताबें पढ़ ले, आदमी को बाँचने का सूत्र समझ नहीं पाता। आदमी है ही ऐसी जटिल रचना जिसमें कमरे में केवल कमरा ही नहीं तहखाना भी छिपा होता है-
आसानी से पहुँच न पाओगे इंसानी फ़ितरत तक कमरे में कमरा होता है कमरे में तहखाना भी
कोई आदमी यदि दृष्टि रखता है, परिश्रमी है, स्वाभिमानी है, हौसलामंद है, सादगी से जीता है, बाँचता है, गुनता है तो उसे उड़ने से, ऊँचाई तक पहुँचने से कोई त़ाक़त रोक लेगी, यह सोचना भी झूठ है। इस झूठ की पोल हस्तीमल ‘हस्ती’ की सच्ची शायरी इस सादगी से खोलती है कि खुद-ब-खुद ‘वाह’ निकल आती है-
परवाज़ जिसके ख़ूँ में है भरता रहा है वो
पिंजरे में भी उड़ान, अगर झूठ है तो बोल
एक और बानगी देखिए-
धरती का मोह छोड़ दिया जिसने उसका ही
हो पाया आसमान अगर झूठ है तो बोल
इस आलेख के आरंभ में ही कहा गया है कि सर्जक का शब्द उसका प्रतिबिम्ब होता है। सर्जक को जानना है, उसकी अ-लिखी आत्मकथा पढ़नी है तो उसका साहित्य पढ़ा जाना चाहिए। इस आलेख के इस अदना-सा लेखक की एक रचना कहती है- “आपने अब तक/ अपनी आत्मकथा / क्यों नहीं लिखी ?/ संभवतः आपने/ अब तक मेरी रचनाएँ / ग़ौर से नहीं पढ़ीं..!
सत्य के पक्षधर, सादगी के हिमायती, धरती में गहराई तक जड़ें रोपकर छायादार दरख़्त-से व्यक्तित्व के धनी हस्तीमल’ हस्ती’ की हस्ती उनकी विभिन्न ग़ज़लों के शेरों के माध्यम से उभरती है। शब्दों से उभरता शायर का यह अक्स शब्दों के परे भी जाता है। यही कारण है कि, “तुम बुलंदी कहते जिसको मियाँ / ऊबकर हम छोड़ आए हैं उसे” कहने वाले हस्तीमल ‘हस्ती’ सरल शब्दों में गहन सत्य को अभिव्यक्त करने वाले जादूगर शायर के रूप में समय के ललाट पर अमिट अंकित हो जाते हैं।
© संजय भारद्वाज
रात्रिः 11:52 बजे, 4 फरवरी 2019
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संजयउवाच@डाटामेल.भारत
☆ आपदां अपहर्तारं ☆
मकर संक्रांति मंगलवार 14 जनवरी 2025 से शिव पुराण का पारायण महाशिवरात्रि तदनुसार बुधवार 26 फरवरी को सम्पन्न होगा
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≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈