श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

आज  इसी अंक में प्रस्तुत है श्री संजय भरद्वाज जी की कविता  “ सीढ़ियों “ का अंग्रेजी अनुवाद  Stairs…” शीर्षक से ।  हम कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी के ह्रदय से आभारी  हैं  जिन्होंने  इस कविता का अत्यंत सुन्दर भावानुवाद किया है। )

 

☆ संजय दृष्टि  ☆  सीढ़ियाँ

आती-जाती

रहती हैं पीढ़ियाँ

जादुई होती हैं

उम्र की सीढ़ियाँ,

जैसे ही अगली

नज़र आती है

पिछली तपाक से

विलुप्त हो जाती है,

आरोह की सतत

दृश्य संभावना में

अवरोह की अदृश्य

आशंका खो जाती है,

जब फूलने लगे साँस

नीचे अथाह अँधेरा हो

पैर ऊपर उठाने को

बचा न साहस मेरा हो,

चलने-फिरने से भी

देह दूर भागती रहे

पर भूख-प्यास तब भी

बिना लांघा लगाती डेरा हो,

हे आयु के दाता! उससे

पहले प्रयाण करा देना

अगले जन्मों के हिसाब में

बची हुई सीढ़ियाँ चढ़ा देना!

मैं जिया अपनी तरह

मरूँ भी अपनी तरह,

आश्रित कराने से पहले

मुझे विलुप्त करा देना!

कृपया घर में रहें, सुरक्षित रहें।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

प्रातः 8:01 बजे, 21.4.19

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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Rita Singh

हमारे सकारात्मक रचनाकार आज विलुप्त होने की बात भला कैसे सोच रहे हैं?
पर सच्चाई भी है कि जब जिए अपनी तरह तो क्यों न मरूँ भी अपनी तरह! तथास्तु तो बनता है न दोस्त।

Sanjay k Bhardwaj

हृदय से धन्यवाद आपका।

अलका अग्रवाल

जीवन को अपनी तरह से जी ना तो संभव है। पर, काश अपनी तरह से मरना भी संभव हो जाये तो मानव जीवन सफल हो जाये।

Sanjay k Bhardwaj

हृदय से धन्यवाद आपका।

माया कटारा

रचनाकार की अंतस से निकली यह इच्छा है कि आज तक स्वेच्छापूर्ण ढंग से जीवित
रहा है , उसकी मृत्यु भी उसी ढंग से हो । पराश्रित जीवन होने से पहले रचनाकार विलुप्त होना चाहता है –तथास्तु

Sanjay k Bhardwaj

हृदय से धन्यवाद आपका।