(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
☆ संजय दृष्टि ☆ तिलिस्म ☆
….तुम्हारे शब्द एक अलग दुनिया में ले जाते हैं। ये दुनिया खींचती है, आकर्षित करती है, मोहित करती है। लगता है जैसे तुम्हारे शब्दों में ही उतर जाऊँ। तुम्हारे शब्दों से मेरे इर्द-गिर्द सितारे रोशन हो उठते हैं। बरसों से जिन सवालों में जीवन उलझा था, वे सुलझने लगे हैं। जीने का मज़ा आ रहा है। मन का मोर नाचने लगा है। लगता है जैसे आसमान मुट्ठी में आ गया है। आनंद से सराबोर हो गया है जीवन।
…सुनो, तुम आओ न एक बार। जिसके शब्दों में तिलिस्म है, उससे जी भरके बतियाना है।जिसके पास हमारी दुनिया के सवालों के जवाब हैं, उसके साथ उसकी दुनिया की सैर करनी है।…..कब आओगे?
लेखक जानता था कि पाठक की पुतलियाँ बुन लेती हैं तिलिस्म और दृष्टिपटल उसे निरंतर निहारता रहता है। तिलिस्म का अपना अबूझ आकर्षण है लेकिन तब तक ही जब तक वह तिलिस्म है। तिलिस्म में प्रवेश करते ही मायावी दुनिया चटकने लगती है।
लेखक यह भी जानता था कि पाठक की आँख में घर कर चुके तिलिस्म की राह उसके शब्दों से होकर गई है। उसे पता था अर्थ ‘डूबते को तिनके का सहारा’ का। उसे भान था सूखे कंठ में पड़ी एक बूँद की अमृतधारा से उपजी तृप्ति का। लेखक परिचित था अनुभूति के गहन आनंद से। वह समझता था महत्व उन सबके जीवन में आनंद की अनुभूति का। लेखक समझता था महत्व तिलिस्म का।
लेखक ने तिलिस्म को तिलिस्म बने रहने दिया और वह कभी नहीं गया, उन सबके पास।
© संजय भारद्वाज
# आपका दिन सृजनशील हो।
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तिलस्मी का ख़ुमार है ही अद्भुत, जो उसमें डूबा उसे संसार का अद्भुत सुख मिला।????????????
धन्यवाद आदरणीय।
शब्दों के मायाजाल से तिलस्मि दुनिया में पहुँचाने की अद्भुत क्षमता।
धन्यवाद आदरणीय।
अच्छी रचना
धन्यवाद आदरणीय।
तिलिस्म में प्रवेश करते ही मायावी दुनिया चटकने लगती है….तिलिस्म शब्द देखते/पढ़ते ही बाबू देवकीनंदन खत्री जी की चंद्रकांता याद आने लगती है…
आप की बहुआयामी सृजन कुंजी से जीवन रूपी तिलिस्म के परतों की तह तक पहुँचने/पहुँचाने की प्रक्रिया अनवरत चलती रहे.. आमीन!???
धन्यवाद आदरणीय।