श्री संजय भारद्वाज
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
☆ संजय दृष्टि ☆ बिन पानी सब सून – 3 ☆
पर्यावरणविद मानते हैं कि अगला विश्वयुद्ध पानी के लिए लड़ा जाएगा। प्राकृतिक संसाधन निर्माण नहीं किए जा सकते। प्रकृति ने उन्हें रिसाइकिल करने की प्रक्रिया बना रखी है। बहुत आवश्यक है कि हम प्रकृति से जो ले रहे हैं, वह उसे लौटाते भी रहें। पानी की मात्रा की दृष्टि से भारत का स्थान विश्व में तीसरा है। विडंबना है कि सबसे अधिक तीव्रता से भूगर्भ जल का क्षरण हमारे यहाँ ही हुआ है। नदी को माँ कहनेवाली संस्कृति ने मैया की गत बुरी कर दी है। गंगा अभियान के नाम पर व्यवस्था द्वारा चालीस हजार करोड़ डकार जाने के बाद भी गंगा सहित अधिकांश नदियाँ अनेक स्थानों पर नाले का रूप ले चुकी हैं। दुनिया भर में ग्लोबल वॉर्मिंग के चलते ग्लेशियर पिघल रहे हैं। आनेवाले दो दशकों में पानी की मांग में लगभग 43 प्रतिशत बढ़ोत्तरी की आशंका है और हम गंभीर जल संकट के मुहाने पर खड़े हैं।
आसन्न खतरे से बचने की दिशा में सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर कुछ स्थानों पर अच्छा काम हुआ है। कुछ वर्ष पहले चेन्नई में रहनेवाले हर नागरिक के लिए वर्षा जल संरक्षण को अनिवार्य कर तत्कालीन कलेक्टर ने नया आदर्श सामने रखा। देश भर के अनेक गाँवों में स्थानीय स्तर पर कार्यरत समाजसेवियों और संस्थाओं ने लोकसहभाग से तालाब खोदे हैं और वर्षा जल संरक्षण से सूखे ग्राम को बारह मास पानी उपलब्ध रहनेवाले ग्राम में बदल दियाहै। ऐसेे प्रयासोेंं को राष्ट्रीय स्तर पर गति से और जनता को साथ लेकर चलाने की आवश्यकता है।
रहीम ने लिखा है-‘ रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून, पानी गये न ऊबरे, मोती, मानस, चून।’ विभिन्न संदर्भों में इसकी व्याख्या भिन्न-भिन्न हो सकती है किंतु पानी का यह प्रतीक जगत् में जल की अनिवार्यता को प्रभावी रूप से रेखांकित करता है। पानी के बिना जीवन की कल्पना करते ही मुँह सूखने लगता है। जिसके अभाव की कल्पना इतनी भयावह है, उसका यथार्थ कैसा होगा ! महादेवीजी के शब्दों में कभी-कभी यथार्थ कल्पना की सीमा को माप लेता है। वस्तुतः पानी में अपनी ओर खींचने का एक तरह का अबूझ आकर्षण है। समुद्र की लहर जब अपनी ओर खींचती है तो पैरों के नीचे की बलुई ज़मीन खिसक जाती है। मनुष्य की उच्छृंखलता यों ही चलती रही तो ज़मीन खिसकने में देर नहीं लगेगी। बेहतर होगा कि हम समय रहते चेत जाएँ।
© संजय भारद्वाज
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बिल्कुल सही कहा आपने, अब भी न चेते तो कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ेगा।
समय रहते यदि नहीं चेते तो बिन पानी सब सून वाली भयावह स्थिति से दो-चार हाथ करने को तैयार रहना पड़ेगा।