श्री संजय भारद्वाज
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
☆ संजय दृष्टि ☆ फेरा ☆
अथाह अंधेरा
एकाएक प्रदीप्त उजाला
मानो हजारों
लट्टू चस गए हों,
नवजात का आना
रोना-मचलना
थपकियों से बहलना,
शनै:-शनै:
भाषा समझना,
तुतलाना
बातें मनवाना
हठी होते जाना,
उच्चारण में
आती प्रवीणता,
शब्द समझकर
उन्हें जीने की लीनता,
चरैवेति-चरैवेति…,
यात्रा का
चरम आना
आदमी का हठी
होते जाना,
येन-केन प्रकारेण
अपनी बातें मनवाना,
शब्दों पर पकड़
खोते जाना,
प्रवीण रहा जो कभी
अब उसका तुतलाना,
रोना-मचलना
किसी तरह
न बहलना,
वर्तमान भूलना
पर बचपन उगलना,
एकाएक वैसा ही
प्रदीप्त उजाला
मानो हजारों
लट्टू चस गए हों
फिर अथाह अंधेरा..,
जीवन को फेरा
यों ही नहीं
कहा गया मित्रो!
© संजय भारद्वाज
प्रात: 10:10 बजे
शनिवार, 26.5.18
# सजग रहें, सतर्क रहें।
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मोबाइल– 9890122603
जीवन-चक्र का सुंदर विश्लेषण। वाह!!
जन्म से लेकर बुढ़ापे तक जिस प्रकार बच्चा तुतलाता है, रोता मचलता है,अपनी बातें मनवाता है,वही हरकतें बुढ़ापा आने पर वो फिर से करने लगता है अर्थात ये जीवन चक्र का यूँ ही चलते जाना- बहुत खूब संजय जी।
जीवन चक्र की अनमोल गाथा …साधुवाद!