श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  –  संस्मरण

मेरे लिए प्रातःभ्रमण निरीक्षण, अपने आप से संवाद करने एवं आकलन का सर्वश्रेष्ठ समय होता है। रोजाना की कुछ किलोमीटर की ये पदयात्रा अनुभव तो समृद्ध करती ही है, मुझे शारीरिक से अधिक मानसिक स्वास्थ्य प्रदान करती है।
आज टहलते हुए हिंदी माध्यम के एक विद्यालय के सामने से निकला। अंग्रेजी स्कूलों में वैन, स्कूल बस और ऑटोरिक्शा से उतरनेवाने स्टुडेंट्स की बनिस्बत घर से पैदल आनेवाले विद्यार्थियों की भीड़ फुटपाथ पर थी।
आपस में बातचीत करती 10-12 वर्ष की दो बच्चियाँ स्कूल के फाटक पर पहुँची। प्रवेश करने के पूर्व दोनों ने स्कूल की माटी मस्तक से लगाई (जैसे मंदिर में प्रवेश से पहले भक्तगण करते हैं), फिर विद्यालय में प्रवेश किया।
मन भर आया। इच्छा हुई कि दोनों बच्चियों के चरणों में माथा नवाकर कहूँ , “बेटा आज समझ में आया कि विद्यालय को ज्ञान मंदिर क्यों कहा जाता था। ..दोनों खूब पढ़ो, खूब आगे बढ़ो!’
विश्वास से कह सकता हूँ कि ये बच्चियाँ अपने जीवन में आनेवाले उतार-चढ़ावों का बेहतर सामना कर पाएँगी क्योंकि हरा वही हुआ जो माटी से जुड़ा।
आपका दिन हरा हो।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(31.10.2013)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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