श्री संजय भारद्वाज
(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। )
☆ संजय दृष्टि – अपवाद ☆
एक ही पिता की
संतानों के स्वभाव
और संकल्प में
ध्रुवीय अंतर
नई बात नहीं है,
मेरी पीड़ा और
मेरी जिजीविषा भी
अपवाद नहीं हैं!
© संजय भारद्वाज, पुणे
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मनुष्य में शुद्ध और शबल दोनों विकार मौजूद होते हैं .मेरा यह मानना हैं की गर्भ धारणा समय माता पिता की मानसिक धारणा नुसार बच्चें में गुणविशेष उतरते हैं ,अत: स्वभाव में भिन्नता तथा समय अनुसार विचारों में भी
मनुष्य के भीतर की जिजीविषा ही उसे जीवित रखती है।पीड़ा चाहे कितनी भी हो सहने की क्षमता सर्वमंगल बढ़ती है। जिजीविषा फोर्स है !
बहुत खूब !
जिजीविषा ही हर बाधा व पीड़ा पर विजय दिला जीवन में आगे बढ़ने का हौसला देती है।??