श्री संजय भारद्वाज
(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। )
☆ संजय दृष्टि – सत्कर्म ☆
कई वर्ष पहले की बात है। इंटरनेट सर्चिंग या अंतरजाल खोज के क्षेत्र में नया था। रक्षाबंधन पर एक प्रोजेक्ट कर रहा था। राखी की विभिन्न डिज़ाइनों की कुछ तस्वीरों के लिए इंटरनेट पर ‘राखी’ शब्द डाला और परिणाम देखकर अवाक हो गया। उन दिनों फिल्मों में आइटम साँग करने वाली इसी नाम की एक अभिनेत्री की तस्वीरें धड़ाधड़ स्क्रिन पर आने लगी थीं। इच्छित की समुचित खोज के लिए सही शब्दों के प्रयोग और तरीके से मैं तब तक अनजान था। एक बात और जानी कि सर्वाधिक सर्च किये शब्द या चित्र उसी अनुक्रम में इंटरनेट दिखाता है।
‘राखी’ का प्रकरण मज़ाक में ही आया-गया हुआ। इस मज़ाक को भीतर तक चीर देनेवाला चाकू कल उस समय लगा, जब ऑनलाइन कुछ टाइप कर रहा था। अपने कथ्य में किसी संदर्भ में ‘सामूहिक’ शब्द टाइप किया। सामूहिक के साथ ही स्क्रिन पर ‘दुष्कर्म’ शब्द झलकने लगा। ‘सर्वाधिक सर्च किये शब्द उसी अनुक्रम में इंटरनेट दिखाता है’, का नियम याद आया और सिर पर मानो हथौड़ा चल पड़ा। अंगुलियाँ रुक गईं, टाइपिंग थम गई पर सर्वाधिक सर्च हुआ शब्द निरंतर, अबाध मेरा पीछा करता रहा।
क्या हो गया है हमारी सामुदायिक और सामूहिक चेतना को? मनुष्य का चोला पहने रंगे सियारों ने मनुष्यता को कलंकित करने की मुहिम छेड़ रखी है। इस मुहिम के विरुद्ध लम्बी सकारात्मक रेखा हम कब खींच पाएँगे? क्या सामुदायिक बोध से उपजा हमारा सामूहिक प्रयास क्या इस ‘दुष्कर्म’ को पीछे ठेलकर ‘सत्कर्म’ को सर्वाधिक सर्च किया जानेवाला शब्द बना पाएगा?
आज ‘सत्कर्म’ सर्च करें।
© संजय भारद्वाज, पुणे
17 नवम्बर 2019, रात्रि 3.40 बजे।
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मोबाइल– 9890122603
सामुदायिक और सामूहिक के अर्थ आज की दुनिया में बदल गए हैं…
स्वार्थांध इस संसार में अब समुदाय और सामूहिक शब्द कहीं खो गए हैं। कहने को हम सिविलाइज़्ड हैं
पर वास्तविकता कुछ और ही है।
लोगों की सीमित व दूषित मानसिक सोच को दर्शाता इंटरनेट।??