हेमन्त बावनकर
(यह ‘गीतांजलि’ कविवर रवींद्र नाथ टैगोर की ‘गीतांजलि’ की कवितायेँ नहीं है। अपितु, इन कविताओं की रचनाकार गीतांजलि! एक पंद्रह वर्षीय प्रतिभाशाली छात्रा थी जो मुम्बई के एक अस्पताल में 11 अगस्त 1977 को कैंसर के लम्बे रोग से ग्रस्त और त्रस्त होकर एक मुरझाये फूल की तरह चुपचाप मौत की सीढि़यां पार कर गई। शायद उसे अपनी मौत का अहसास पहले ही हो गया था। उसकी अन्तिम इच्छा थी कि उसके नेत्र किसी नेत्रहीन को दे दिये जायें। वह अपने हृदय का बोझ शताधिक अंग्रेजी कविताओं में कैद कर गई। श्री प्रीतिश नंदी द्वारा 30 मार्च 1980 के ’इलस्ट्रेटेड वीकली आफ इण्डिया’ के अंक में प्रकाशित संकलन ने मेरा रचना संसार ही झकझोर कर रख दिया। आज से 29 वर्ष पूर्व इन गीतांजलि की उन पांच कविताओं का भावानुवाद करने की चेष्टा की है। गीतांजलि की ये मार्मिक एवं हृदयस्पर्शी कवितायें ही मेरी भावी रचनाओं के लिये प्रेरणा स्त्रोत बन गई हैं। कालान्तर में मैंने उनकी सभी कविताओं का अनुवाद ‘गीतांजलि – यादें और यथार्थ’ शीर्षक से किया और सहेज कर अपने पास रखा हुआ है।)
☆ विदा लेती आत्मा की प्रतिध्वनि☆
मेरे जीवन की लौ
बढ़ रही है
अपने अन्त की ओर।
मैं नहीं जानती
कब आयेगा
मेरा अन्त।
मुझे दुख है
अपने लिये
किन्तु,
मुझे खुशी है
तुम्हारे लिये
मेरे अज्ञात मित्र
तुम्हारे लिये,
उस ज्योति के लिये
मेरे नेत्रों की
जो तुम्हारी होगी।
जो तुम्हारी होगी।
यह वही प्रतिध्वनि है
मेरी विदा लेती आत्मा की
और
जो तुम पाओगे
मेरे मित्र
मेरी ज्योति
मेरे नेत्रों की
वह मेरी अमानत है
तुम्हारे लिये।
☆ विनती ☆
मैं हमेशा ढ़ूंढती हूं, तुम्हें
अपनी प्रार्थनाओं में
सर्वस्व में
उगते सूर्य में
और
ढलते दिन में।
मैं तुम्हें ढ़ूंढती हूँ
स्वप्न में
अज्ञात प्रकाश में
तुम्हारे आलौकिक स्पर्श के लिये
जब मैं त्रस्त रहती हूं
असह्य पीड़ा से
और
धन्यवाद देना चाहती हूँ
इस आशा से
कि
– कब मेरी पीड़ा दूर करोगे।
मैं तुम्हें ढ़ूंढती हूँ
अपनी प्यारी माँ में
और
अपने पूज्य पिताजी में भी
तुम्हारे मार्गदर्शन के लिये।
संयोग से
यदि
मैं ठीक न हो पाई
तो
तुम्हारा नाम लेना व्यर्थ होगा।
हे प्रभु!
विश्वास करो
मैं असहय पीड़ा में हूँ।
मैं तुम्हें धन्यवाद देती हूँ
उन अनमोल क्षणों के लिये
जब तुमने मुझे हंसाया था
इसी असहय पीड़ा में।
उन्हें
संजो रखा है मैंने
एक अनमोल खजाने की तरह
और
जी रही हूँ
उन्हीं अविस्मरणीय क्षणों को
याद कर ।
मैं
अनुभव कर रही हूँ
तुम्हारा अस्तित्व
अपनी माँ में
और
पिताजी की गोद में।
मुझे विश्वास है
और
तुम जानते हो
मैं कुछ नहीं चाहती।
बस,
सत्य की रक्षा करो।
सत्य तुम्हारे अन्दर है
और
इसीलिये
मैं तुम्हें ढूंढ रही हूं।
मैं तुम्हें ढूंढूंगी
अपनी मृत्यु के अन्तिम क्षणों तक।
मैं विनती करती हूँ
हे! मेरे प्रिय प्रभु!
मेरे पास आओ
मेरे हाथों को सहारा दो
और ले जाओ
जहां तुम चाहते हो।
एक वात्सल्य विश्वास लिये
इसी आशा पर टिकी हूं
अतः हे प्रभु!
मुझ पर कृपा करो
मेरे करीब आओ।
☆ अफसोस☆
एक दीपक जल रहा है
मेरी शैय्या के पास।
मैं देख रही हूं
दुखी चेहरे
उदास
जो घूम रहे हैं
मेरे आसपास
नहीं जानते
कब मृत्यु आयेगी।
मैं!
मांग रही हूं
अपना अधिकार
मौत से।
अब मुझे कोई भय नहीं है
अतः
मैं स्वागत करुंगी
मौत का
अपनी बाहें फैलाकर।
किन्तु, …… अफसोस!
मेरे पास
अर्पण के लिये
केवल आंसू रहेंगे
और
यह नश्वर शरीर।
☆ निद्रा! ☆
हे निद्रा!
हम कब मिले थे,
पिछली बार?
तुम और मैं
हो गये हैं अजनबी।
अभी
कुछ समय पहले
हम लोग कितने करीब थे।
जब तुम ले जाती थी … मुझे
मेरा हाथ थाम कर
दूर पहाडियों पर
स्वप्नों का किला बनाने।
अब
यह सब
कितना अजीब है।
अब रह गई हैं
मात्र
एक धुंधली सी स्मृति
तुम्हारी!
याद करो
आदान प्रदान
हमारे करुण विचारों का?
अब
रह गई हूँ, अकेली
और
स्मृतियां शेष !
कभी-कभी
कुछ शब्द-चक्र
पुनर्जीवित कर देते हैं
विस्मृत क्षणों को
एक लोरी की तरह।
एक शुभरात्रि चुम्बन
मुझे याद दिलाता है, तुमको
जिसे कहते हैं
’निद्रा’!
अब लेटी हूं
और
देख रही हूँ
अंधकार में
अकेली और दुखी।
एक बार
रास्ते में
निद्रा घेर लेती है
अचानक!
और …. स्वप्न
मुझसे दूर भागने लगते हैं।
22 अप्रेल 1980
एक दीपक जल रहा है
मेरी शैया के पास…..
अब मुझे भय नहीं है…
गीतांजलि की भावनात्मक स्मृति को नमन
सुंदर सार्थक अनुवाद
धन्यवाद भाई साहब।
बेहतरीन कविता शानदार अभिव्यक्ति
विनम्र श्रद्धांजलि गीतांजलि को
बहुत बढ़िया कविताएं हैं, अर्थात अनुवाद भी उत्कृष्ट है ही।इतनी सुन्दर कविताओं से साक्षात्कार कराने के लिए आभार।