श्री संजय भारद्वाज
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – प्रवाह
वह बहती रही, मैं कहता रहा।
…जानता हूँ, सारा दोष मेरा है। तुम तो समाहित होना चाहती थी मुझमें पर अहंकार ने चारों ओर से घेर रखा था मुझे।
…तुम प्रतीक्षा करती रही, मैं प्रतीक्षा कराता रहा।
… समय बीत चला। फिर कंठ सूखने लगे। रार बढ़ने लगी, धरती में दरार पड़ने लगी।
… मेरा अहंकार अड़ा रहा। तुम्हारी ममता, धैर्य पर भारी पड़ी।
…अंततः तुम चल पड़ी। चलते-चलते कुछ दौड़ने लगी। फिर बहने लगी। तुम्हारा अस्तित्व विस्तार पाता गया।
… अब तृप्ति आकंठ डूबने लगी है। रार ने प्यार के हाथ बढ़ाए हैं। दरारों में अंकुर उग आए हैं।
… अब तुम हो, तुम्हारा प्रवाह है। तुम्हारे तट हैं, तट पर बस्तियाँ हैं।
… लौट आओ, मैं फिर जीना चाहता हूँ पुराने दिन।
… अब तुम बह रही हो, मैं प्रतीक्षा कर रहा हूँ।
…और प्रतीक्षा नहीं होती मुझसे। लौट आओ।
… सुनो, नदी को दो में से एक चुनना होता है, बहना या सूखना। लौटना उसकी नियति नहीं।
वह बहती रही।
# घर में रहें। सुरक्षित रहें। स्वस्थ रहें#
© संजय भारद्वाज
प्रातः 8:35, 21 मई 2021
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
9890122603
प्रवाहित नदी का प्रवाह अब केवल बहने के लिए है , लौट आना संभव नहीं , लाख कोशिशों के बावजूद सूखना या बहना नियति है नदी की । अभिनंदन ‘प्रवाह ‘सार्थक शीर्षक ….
वाह, इस प्रवाह ने ही संभवतः मानव जाति को आगे बढ़ते रहने की कला सिखाई। प्रतीक्षा करने और कराने के बीच बहुत कुछ कह दिया कविमन ने