श्री संजय भारद्वाज
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
चंद्रमा मनसो जात:
शरद पूर्णिमा अर्थात समुद्र मंथन में लक्ष्मी जी के प्रकट होने की रात्रि,….शरद पूर्णिमा अर्थात द्वापर में रासरचैया द्वारा राधारानी एवं गोपिकाओं सहित महारास की रात्रि, जिसे देखकर आनंद विभोर चांद ने धरती पर अमृत वर्षा की थी।
चंद्रमा की कला की तरह घटता-बढ़ता-बदलता रहता है मनुष्य का मन भी। यही कारण है कि कहा गया, ‘चंद्रमा मनसो जात:।’
मान्यता है कि आज की रात्रि लक्ष्मी जी धरती का विचरण करती हैं और पूछती हैं, ‘को जागर्ति?’.. कौन जाग रहा है?..जागना याने ध्येयनिष्ठ और लक्ष्यनिष्ठ परिश्रम करना।
परिश्रमजनित ऐश्वर्य, आनंद, अमृत की कुमुदिनी आपके जीवन में सदा खिली रहे। जागते रहें, आनंदामृत से पुलकित रहें।
शरद / कोजागिरी / कौमुदी पूर्णिमा की हार्दिक बधाई
संजय दृष्टि – लघुकथा – लेखक
मित्रता का मुखौटा लगाकर शत्रु, लेखक से मिलने आया। दोनों खूब घुले-मिले, चर्चाएँ हुईं। ईमानदारी से जीवन जीने के सूत्र कहे-सुने, हँसी-मज़ाक चला। लेखक ने उन सारे आयामों का मान रखा जो मित्रता की परिधि में आते हैं।
एक बार शत्रु रंगे हाथ पकड़ा गया। उसने दर्पोक्ति की कि मित्र के वेष में भी वही आया था। लेखक ने सहजता से कहा, ‘मैं जानता हूँ।’
चौंकने की बारी शत्रु की थी। ‘शब्दों को जीने का ढोंग करते हो। पता था तो जानबूझकर मेरे सच के प्रति अनजान क्यों रहे?’
‘सच्चा लेखक शब्द और उसके अर्थ को जीता है। तुम मित्रता के वेष में थे। मुझे वेष और मित्रता दोनों शब्दों के अर्थ की रक्षा करनी थी’, लेखक ने उत्तर दिया।
© संजय भारद्वाज
(संध्या 5:14 बजे, 18 अक्टूबर 2021)
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वेश और मित्रता दोनों की रक्षा करना लेखक को आता है , बढ़िया अभिव्यक्ति