श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

☆ संजय दृष्टि – प्रेम ☆

“वी आर इन रिलेशन.., आई लव हर डैड,” होस्टल में रहनेवाले बेटे ने फोन पर ऐलान किया था। वह चुप रहा। यहाँ-वहाँ की बातें कर कुछ देर बाद फोन रख दिया।

ज़्यादा समय नहीं बीता। शायद छह महीने बाद ही उसने घोषणा कर दी, ” हमारा ब्रेकअप हो गया है। आई डोंट लव हर एनीमोर।” कुछ देर के संवाद के बाद पिता ने फिर फोन रख दिया।

‘लव हर.., डोंट लव हर..??’ देह तक पहुँचने का रास्ता कितना छोटा होता है! मन तक पहुँचने का रास्ता कहीं ठहरने का नाम ही नहीं लेता बल्कि हर कदम के बाद पीछे लौटने का रास्ता बंद होता जाता है। न रास्ता ठहरता है, न पीछे लौट सकने की गुंजाइश का खत्म होना रुकता है। प्रेम और वापस लौटना विलोम हैं। लव में ‘अन-डू’ का ऑप्शन नहीं होता। जो खुद को लौटा हुआ घोषित करते  हैं, वे भी केवल देह लेकर ही लौट पाते हैं। मन तो बींधा पड़ा होता है वहीं। काँटा चुभने की पीर, गुमशुदा के गुमशुदा रहने की दुआ, खोने की टीस, पाने की भी टीस, पराये का अपना होने की प्रीत, अपने का पराया होने की रीत, थोड़ा अपना पर थोड़ा पराया दिखता मीत.., किसी से भी, कहीं से भी वापस नहीं लौट पाता मनुष्य।

जन्म-जन्मांतर बीत जाते हैं प्रेम में!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स

मोबाइल– 9890122603

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वीनु जमुआर

प्रेम की सच्ची परिभाषा..”लव मे अन-डू का आॅप्शन नहीं होता” शत प्रतिशत सही!

श्रीमती अरविन्द तिवारी

सच बात है लेकिन लोग दूसरों को सुनाते हैं अपने आप में तो अंदर ही अंदर उस दर्द का अहसास तो जन्मजन्मांतर तक रहता है