श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 19 ??

मेला और मनुष्य-

‘मेल’ शब्द से बना है ‘मेला।’ मिलाप का साकार, चैतन्य साकार रूप है मेला। दर्शन जगत को मेला कहता है क्योंकि मेले में व्यक्ति थोड़े समय के लिए साथ आता है, मिलाप का आनंद ग्रहण करता है,  फिर लौट जाता है अपने निवास। सच देखा जाय तो लौटना ही पड़ता है।  मेला किसीका निवास  नहीं हो सकता। गंतव्य के अलावा कोई विकल्प नहीं। संत कबीर लिखते हैं,

उड़ जायेगा हंस अकेला,

जग दर्शन का मेला..!

अकारण जमाव या जमावड़ा भर नहीं होता मेला। किसी निश्चित कारण से, सोद्देश्य मिलाप होता है मेला। ये कारण धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, व्यापारिक आदि हो सकते हैं।

मेला आयोजित करने की परंपरा लगभग उतनी ही पुरानी है जितना मनुष्य का नागरी सभ्यता में प्रवेश। मनुष्य सामाजिक प्राणी है। समूह या समाज के बिना जी नहीं सकता। आदिवासी टोलों में संध्या समय सामूहिक नृत्य की परंपरा रही। यह एक तरह से मेले का ही दैनिक लघु रूप है। साथ ही मानसिक विरेचन का साधन भी। एक अन्य दृष्टि से देखें तो सूर्योदय से मिले दिन का सूर्यास्त के समय उत्सव मना लेना बहुत बड़ा दर्शन है। ज़िंदगी के क्षणभंगुर मेले का यह कितना गहरा दर्शन है।  1948 में ‘मेला’ फिल्म के लिए गीतकार शकील बदायूंनी ने लिखा,

ये ज़िंदगी के मेले

दुनिया में कम न होंगे

अफसोस हम न होंगे।

नागरी सभ्यता में प्रवेश करने के बाद मनुष्य के रहन-सहन में संकीर्णता प्रवेश करने लगी पर मन के भीतर एक मेला लगा रहा। मन के मेले ने सदेह अवतार लिया और लगने-सजने लगे सचमुच के मेले। लोग इनकी प्रतीक्षा करने लगे। काल कोई भी रहा हो, मेले का अकाल कभी नहीं पड़ा। सुदूर गाँवों से लेकर महानगरों तक मेला ने अपने पैर फैलाए। इतिहास में विभिन्न राजा-रजवाड़ों के शासन में प्रसिद्ध मेलों का उल्लेख मिलता है।

वस्तुत:  उत्सव का विस्तार है मेला। उत्सव या त्योहार एक से लेकर अधिकतम कुछ दिनों तक  चलता है। मेला की अवधि सप्ताह भर से लेकर  कुछ महीनों तक  हो सकती है।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
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लतिका

अतीत के संदर्भ में जीवन का विश्लेषण किया है। बहुत ही महत्वपूर्ण कथन।धन्यवाद!?

अलका अग्रवाल

मेले- विशेष कारणों व समुदायों द्वारा लगाए गए एक, दो या काफी दिनों तक लगाए गए मेले जहां मिलाप भी होता है। बहुत सुंदर आलेख।

माया कटारा

उत्सव का विस्तार है मेला, बड़ी विश्लेषणात्मक जीवन-संजीवनी जानकारी मानसिक उत्थान की ओर अग्रसर करता आलेख – भारतीय संस्कृति को गौरवान्वित करने के लिए साधुवाद…..