श्री संजय भारद्वाज
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 6
लोक में मनुष्य ही नहीं पशु-पक्षियों, कीड़े-मकोड़ों की भी प्रतिष्ठा है। महाराष्ट्र में बैलों की पूजा का पर्व ‘बैल पोळा’ मनाया जाता है। वर्ष भर किसान के साथ खेत में काम करनेवाले बैलों के प्रति यह कृतज्ञता का भाव है। पंजाब में बैसाखी में बैलों की पूजा, दक्षिण में हाथी की पूजा इसी कृतज्ञता की कथा कहते हैं। नागपंचमी पर साक्षात काल याने नाग की पूजा भी पूरी श्रद्धा से की जाती है।
पीपल, बरगद, आँवला, तुलसी जैसे पेड़-पौधों की पूजा वसुधा पर हर घटक को परिवार मानने के दर्शन को प्रकट करती है, हर घट में राम देखती है। हर घट में राम देखने की दृष्टि रखनेवालों को अंधविश्वासी, मूर्ख, रिलीजियस फूल, स्टुपिड ब्लैक कहकर उपहास उड़ाने वाले आज पर्यावरण विनाश पर टेसू बहाते हैं। आँख की क्षुद्रता ऐसी कि बरगद को मन्नत के धागे बांधकर कटने से उसका बचाव नहीं दिखा। धागों में अंधविश्वास देखने वाले पर्यावरण संरक्षण का आत्मविश्वास नहीं पढ़ पाए। इस संदर्भ में इन पंक्तियों के लेखक की एक कविता है-
लपेटा जा रहा है
कच्चा सूत
विशाल बरगद
के चारों ओर,
आयु बढ़ाने की
मनौती से बनी
यह रक्षापंक्ति
अपनी सदाहरी
सफलता की गाथा
सप्रमाण कहती आई है,
कच्चे धागों से बनी
सुहागिन वैक्सिन
अनंतकाल से
बरगदों को
चिरंजीव रखती आई है!
इसी प्रकार जिसका दूध पीकर पुष्ट हुए, उस गौ को माँ के तुल्य ‘गौमाता’ का स्थान देना अनन्य लोकसंस्कृति है। पेड़ों के पत्ते न तोड़ना, चींटियों को आटा डालना, पहली रोटी दूध देनेवाली गाय के लिए, अंतिम रोटी रक्षा करने वाले श्वान के लिए इसी अनन्यता का विस्तार है। गाय का दूध दुहकर अपना घर चलाने वाले ग्वालों द्वारा गाय के थनों में बछड़े के पीने के लिए पर्याप्त दूध छोड़ देना, शहरों की यांत्रिकता में बछड़ों को निरुपयोगी मानकर वधगृह भेजने के हिमायतियों की समझ के परे है। वस्तुत: लोकजीवन में सहभागिता और साहचर्य है। लोकजीवन आदमी का एकाधिकार नकारता है। यहाँ आदमी घटक है, स्वामी नहीं है। चौरासी लाख योनियों का दर्शन भी इसे ही प्रतिपादित करता है।
क्रमशः…
© संजय भारद्वाज
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
संजयउवाच@डाटामेल.भारत