श्री संजय भारद्वाज
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – लघुकथा – ज़र, जोरू, ज़मीन
यह ज़मीन मेरी है,…नहीं मेरी है,..तुम्हारी कैसे हुई, मेरी है।….तलवारें खिंच गईं। जहाँ कभी खेत थे, वहाँ कई खेत रहे।
ये संपत्ति मेरी है,…पुश्तैनी संपत्ति है, यह मेरी है,..खबरदार ! यह पूरी की पूरी मेरी है।..सहोदर, शत्रुओं से एक-दूसरे पर टूट पड़े। घायल रिश्ते, रिसते रहे।
यह स्त्री मेरी है,…मैं बरसों से इसे चाहता हूँ, यह मेरी है,…इससे पहली मुलाकात मेरी हुई थी, यह मेरी है।… प्रेम की आड़ में देह को लेकर गोलियाँ चलीं, प्रेम क्षत- विक्षत हुआ।
यह ईश्वर हमारा नहीं है,…हम तुम्हारे ईश्वर का नाम नहीं लेते,…हम भी तुम्हारे ईश्वर को नहीं मानते,…तुम्हारा ईश्वर हमारा ईश्वर नहीं है।…हिस्सों में बंटा ईश्वर तार-तार होता रहा।
आदमी की नादानी पर ज़मीन, संपत्ति और औरत ठठाकर हँस पड़े।
© संजय भारद्वाज
(प्रातः 8:01बजे, 31.5.2019)
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
संजयउवाच@डाटामेल.भारत
प्राचीन काल से ही चला आ रहा सिलसिला ।
शब्दों के सुंदर चयन से अर्थ तो प्रभावी ढंग से प्रस्तुत हुआ ही रचना का सौंदर्य भी कई गुना बढ़ गया।
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