श्री संजय भारद्वाज
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – हिंदी फिल्मी गीतों में उदात्त प्रेम
प्रेम केवल मनुष्य नहीं अपितु सजीव सृष्टि का शाश्वत और उदात्त मूल्य है। इस उदात्तता के दर्शन यत्र-तत्र-सर्वत्र होते हैं। उदात्त प्रेम के इस रूप को प्राचीन भारत में मान्यता थी। विवाह के आठ प्रकारों की स्वीकार्यता इस मान्यता की एक कड़ी रही।
कालांतर में लगभग एक हज़ार साल के विदेशी शासन ने सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों में भारी उलटफेर किया। इस उलटफेर ने वर्ग और वर्ण के बीच संघर्ष उत्पन्न किया। इसके चलते प्रेम की अनुभूति तो शाश्वत रही पर सामाजिक चौखट के चलते अभिव्यक्ति दबी- छिपी और मूक होने लगी।
1931 में आया पहला बोलता सिनेमा ‘आलमआरा’ और मानो इस मूक अभिव्यक्ति को स्वर मिल गया। यह स्वर था गीतों का।
अधिकांश फिल्मों की कहानी का केंद्र नायक, नायिका और उनका प्रेम बना। यह प्रेम फिल्मी गीतों के बोलों में बहने लगा। ख़ासतौर पर 50 से 70 के दशक के गीतों की समष्टि में व्यक्ति को अपनी भावना की अभिव्यक्ति मिलने लगी। कुछ ऐसी अभिव्यक्ति जैसी ‘उबूंटू’ के भाव में है। समष्टि के लिए रचे गीत वह गा सकता था, गुनगुना सकता था/ थी, जिनमें निगाहें कहीं थीं और निशाना कहीं था। इन प्रेमगीतों ने भारतीय समाज को मन के विरेचन के लिए बड़ा प्लेटफॉर्म दिया।
गीतकारों ने गीत भी ऐसे रचे जिसमें प्रेम अपने मौलिक रूप में याने उदात्त भाव में विराजमान था। प्रेम को विदेह करती यह बानगी देखिए, ‘दर्पण जब तुम्हें डराने लगे, जवानी भी तुमसे दामन छुड़ाने लगे, तब तुम मेरे पास आना प्रिये, मेरा सर झुका है, झुका ही रहेगा तुम्हारे लिए..।’
स्थूल को सूक्ष्म का प्रतीक मानने की यह अनन्य दृष्टि देखिए, ‘तुझे देखकर जग वाले पर यकीन क्योंकर नहीं होगा, जिसकी रचना इतनी सुंदर, वो कितना सुंदर होगा…/ अंग-अंग तेरा रस की गंगा, रूप का वो सागर होगा..।’
प्रेम के मखमली भावों की शालीन प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति का यह ग़जब देखिए, ‘मैं नदिया फिर भी मैं प्यासी, भेद यह गहरा, बात ज़रा सी।’ श्रृंगार भी शालीनता से ही अलंकृत रहा,’ मन की प्यास मेरे मन से न निकली, ऐसे तड़पूँ हूँ जैसे जल बिन मछली।’
प्रीत की उलट रीत कुछ यों अभिव्यक्त हुई है, ‘दिल अपना और प्रीत पराई, किसने है यह रीत बनाई..।’ इस रीत के रहस्य को छिपाये रखने का भी अपना अलग ही अंदाज़ है, ‘होठों पे ऐसी बात मैं दबाके चली आई, खुल जाए वही बात तो दुहाई है दुहाई..।’ प्रेयसी के अधरों तक पहुँचे शब्दों में ‘अ-क्षरा’ भाव तो सुनते ही बनता है, ‘होठों से छू लो तुम, मेरा गीत अमर कर दो..।’ होठों की बात कहने के लिए मीत को बुलाना और मीत को सामने पाकर आँख चुराना दिलकश है, साथ ही अपनी बीमारी के प्रति अनजान बनना तो क़ातिल ही है, ‘मिलो न तुम तो हम घबराएँ, मिलो तो आँख चुराएँ../ तुम्हीं को दिल का राज़ बताएँ, तुम्हीं से राज़ छुपाएँ,…हमें क्या हो गया है..!’
चाहत अबाध है, ‘चाहूँगा तुझे सांझ सवेरे’.., चाहत में साथ की साध है, ‘तेरा मेरा साथ रहे..’ चाहत में होने से नहीं, मानने से जुदाई है,’जुदा तो वो हैं खोट जिनकी चाह में है..।’ अपने साथी में अपनी दुनिया निहारता है आदमी, ‘तुम्हीं तो मेरी दुनिया हो’ पर गीत दुनियावी आदमी को दुनिया की हकीकत से भी रू-ब-रू कराता है, ‘छोड़ दे सारी दुनिया किसीके लिए, ये मुनासिब नहीं आदमी के लिए।’
उदात्त प्रेम केवल प्रेमी-प्रेमिका तक सीमित नहीं रहता। इसके घेरे में सारे रिश्ते और सारी संवेदनाएँ आती हैं। देश के प्रति निष्ठा हो, भाई- बहन का सहोदर भाव हो या पिता से परोक्ष बंधी पुत्री की गर्भनाल हो.., गीतों में सब अभिव्यक्त होता है। कलेजे के टुकड़े को विदा करती पिता की यह पीर साहिर लुधियानवी की कलम से निकल कर रफी साहब के कंठ में उतरती है और सार्वभौमिक तथा सार्वकालिक होकर अमर हो जाती है, ‘बाबुल की दुआएँ लेती जा, जा तुझको सुखी संसार मिले/ मैके की ना कभी याद आए, ससुराल में इतना प्यार मिले..।’ उदात्त में पराकाष्ठा समाहित है तब भी इसी गीत में उदात्त की पराकाष्ठा भी हो सकती है, इसका प्रमाण छलकता है, ‘..उस द्वार से भी दुख दूर रहे, जिस द्वार से तेरा द्वार मिले..।’
गीत बहते हैं। गीतों में प्यार की लय होती है। प्यार भी बहता है। प्यार में नूर की बूँद होती है,..’ ना ये बुझती है, न रुकती है, न ठहरी है कहीं/ नूर की बूँद है, सदियों से बहा करती है।’
उदात्त प्रेम ऐसा ही होता है, फिर वह चाहे फिल्मी गीतों के माध्यम से मुखर होकर गाए या भीतर ही भीतर अपना मौन गुनगुनाए।
© संजय भारद्वाज
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
संजयउवाच@डाटामेल.भारत