श्री जय प्रकाश पाण्डेय
वर्तमान में साहित्यकारों के संवेदन में बिखराव और अन्तर्विरोध क्यों बढ़ता जा रहा है, इसको जानने के लिए साहित्यकार के जीवन दृष्टिकोण को बनाने वाले इतिहास और समाज की विकासमान परिस्थितियों को देखना पड़ता है, और ऐसा सब जानने समझने के लिए खुद से खुद का साक्षात्कार ही इन सब सवालों के जवाब दे सकता है, जिससे जीवन में रचनात्मक उत्साह बना रहता है। साक्षात्कार के कटघरे में बहुत कम लोग ऐसे मिलते हैं, जो अपना सीना फाड़कर सबको दिखा देते हैं कि उनके अंदर एक समर्थ, संवेदनशील साहित्यकार विराजमान है।
कुछ लोगों के आत्मसाक्षात्कार से सबको बहुत कुछ सीखने मिलता है, क्योंकि वे विद्वान बेबाकी से अपने बारे में सब कुछ उड़ेल देते है।
खुद से खुद की बात करना एक अनुपम कला है। ई-अभिव्यकि परिवार हमेशा अपने सुधी एवं प्रबुद्ध पाठकों के बीच नवाचार लाने पर विश्वास रखता है, और इसी क्रम में हमने माह के हर दूसरे बुधवार को “खुद से खुद का साक्षात्कार” मासिक स्तम्भ प्रारम्भ किया हैं। जिसमें ख्यातिलब्ध लेखक खुद से खुद का साक्षात्कार लेकर हमारे ईमेल ([email protected]) पर प्रेषित कर सकते हैं। साक्षात्कार के साथ अपना संक्षिप्त परिचय एवं चित्र अवश्य भेजिएगा।
आज इस कड़ी में प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार – साहित्यकार श्री कैलाश मंडलेकर जी का खुद से खुद का साक्षात्कार.
– जय प्रकाश पाण्डेय, संपादक ई-अभिव्यक्ति (हिन्दी)
☆ खुद से खुद का साक्षात्कार #3 – व्यंग्य लेखन कहीं न कहीं आदमी को आश्वस्त करता है….. श्री कैलाश मंडलेकर☆
श्री कैलाश मंडलेकर
परिचय
हरदा मध्यप्रदेश में जन्म
सागर विश्व विद्यालय से हिंदी में स्नातकोत्तर ।
धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, हंस, नया ज्ञानोदय , कथादेश, अहा जिंदगी, लमही, कादम्बिनी, नवनीत, सहित सभी पत्र पत्रिकाओं में व्यंग्य लेखन ।
विगत तीन वर्षों से भोपाल के प्रमुख दैनिक “सुबह सवेरे ” में लिखा जा रहा व्यंग्य कॉलम ” तिरफेंक” बेहद चर्चित ।
अब तक व्यंग्य की पांच कृतियाँ प्रकाशित ।
भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित कृति ” एक अधूरी प्रेम कहानी का दुखांत ” मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी से पुरस्कृत ।
अखिल भारतीय टेपा सम्मेलन उज्जैन का पहला “रामेंद्र द्विवेदी ” सम्मान ।
पहला ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार ।
अभिनव कला परिषद का “शब्द शिल्पी ” सम्मान सहित अनेक पुरस्कार ।
हिंदी रंगमंच में सक्रिय भागीदारी। दुलारी बा , बाप रे बाप आदि नाटकों में जीवंत अभिनय ।
ई मेल [email protected]
व्यंग्य लेखन कहीं न कहीं आदमी को आश्वस्त करता है कि विसंगतियों पर उसकी नजर है…..
खुद से खुद के साक्षात्कार की यह श्रृंखला दिलचस्प है। एक दम सैंया भये कोतवाल टाइप। जब सामने कोई पूछने ही वाला न हो तो डर काहे का। जो मन मे आये पूछ डालो। यह सुविधा का साक्षात्कार है। आजकल व्यंग्य की दुनिया मे ऐसी मारामारी मची है कि किसी को इंटरव्यू लेने की फुर्सत नही है। पर व्यंग्यकार स्वावलंबी होता है। वह साक्षात्कार के लिए दूसरों पर निर्भर नही रह सकता। खुद ही निपटा लेता है। इस श्रंखला के प्रणेता श्री जयप्रकाश पांडेय हैं, वे खुद भी व्यंग्यकार हैं उनका आभार व्यक्त करते हुए अपना इंटरव्यू पेश ए खिदमत है।
सवाल – आप लेखक कैसे बने, यानी किसकी प्रेरणा से, और लेखन में भी व्यंग्य को ही क्यों चुना ?
जवाब – देखिए, लेखक बनने के कोई गुण या दुर्गुण मुझ में नही थे। बचपन एक ऐसे गांव में बीता जहां अभाव और गर्दिशों की भरमार थी। वहां नीम और इमली के कुछ दरख़्त थे जो इतने घने थे कि कई बार अनजान आदमी को यह अंदाज लगाना मुश्किल होता था कि यहां कोई बसीगत भी है या निरा जंगल है। लेकिन वहां बसीगत थी क्योंकि हम उसी जंगल मे रहते थे। रात में गांव वाले अपने घरों में घासलेट की चिमनियां जलाते थे जो फ़क़त इतना उजाला करती थी कि बच्चे अपनी परछाइयों को देख कर मनोरंजन कर सकें। तब बच्चों के मन बहलाव के और कोई साधन नही थे। घासलेट तेल की राशनिंग थी इसलिए रात भर बत्ती जलाने की अय्याशी नही की जा सकती थी।जबकि अंधेरे में कई लोगों को सांप डस लिया करते थे।और हैरत की बात यह कि लोग फिर भी नही मरते थे, ज्यादातर मामलों में सांप को ही मरना पड़ता था। रात में लोग दिया बत्ती बुझा देते थे और सारा गांव एक ख़ौफ़नाक अंधेरे के मुंह मे समा जाता था।अंधेरा सिर्फ रात की ही वजह से नही होता था, उसकी और भी वजहें थीं, और भी रंग थे। अंधेरे की उपस्थिति जब अटल हो जाती है तब लोग उससे प्यार करने लगते हैं अंधेरा बाज दफे सुरक्षा के अभेद्य किले की तरह होता है हम लोग अंधेरे के आगोश में महफूज रहना सीख गए थे। घासलेट की बत्तियों से उजाला नही होता, वे सिर्फ उजाले का भरम पैदा करती थीं। ऐसी मुश्किलातों में रह कर या तो चोर बना जा सकता है या लेखक, बन्दे ने लेखन का रास्ता चुना। व्यंग्य लिखना यों सीखा कि गांव से निकलकर जब कॉलेज पढ़ने शहर में आये तो लाइब्रेरी में परसाई जी को पढ़ने का मौका हाथ लगा।उन्हें पढ़कर लगा कि असली लेखन यही है। फिर धीरे धीरे खुद भी लिखने की कोशिश की। नई दुनिया मे अधबीच में व्यंग्य छपने लगे। छपी हुई रचनाओं की कटिंग्स परसाई जी को भेजते रहे। कुछ दिनों बाद उनसे मिलने भी गए। उन्होंने कहा लिखो, अच्छा लिखते हो। बाद में अजातशत्रु का साथ मिला तो हिम्मत बढ़ती गई। धीरे धीरे किताबें छपने लगी। एक संग्रह ज्ञानपीठ ने छापा। हिंदी के मूर्धन्य आलोचक डॉ प्रभाकर श्रोत्रिय ने एक इंटरव्यू में कहा कि मध्यप्रदेश के कैलाश मण्डलेकर बहुत अच्छा व्यंग्य लिखते हैं। डॉ ज्ञान चतुर्वेदी ने कई जगह खाकसार के व्यंग्य लेखन की सराहना की। बस यही सब बातें हैं जिन्होंने व्यंग्यकार बना दिया। अब स्थिति यह है कि व्यंग्य ही लिखते बनता है और कुछ नही।हालांकि कहानियां भी लिखी पर उनमें भी व्यंग्य की ही अंतर्धारा है। इधर व्यंग्य आलोचना पर भी काम कर रहा हूँ। व्यंग्य आलोचना पर एक किताब जल्दी ही आने वाली है।
सवाल – आपके व्यंग्य की अपनी अलग शैली है, आपको पढ़कर अलग से पहचाना जा सकता है।इसे आपने कैसे साधा ?
जवाब – यह अच्छी बात है कि मेरे व्यंग्य अलग से पहचाने जाते हैं और अब मैं अपनी मौलिकता के साथ हूँ।जहां तक साधने की बात है तो निवेदन है कि यह मामला मशीनी नही है धीरे धीरे होता है।भाषा तो बनते बनते बनती है।मेरे व्यंग्य लेखन की विशिष्टता, जैसे कि कुछ लोग कहते हैं विशुद्ध निबंधात्मक नही होते उनमें कथा तत्व भी झांकता है। मुझे लगता है कुछ बातें यदि कथा में पिरोकर किसी पात्र के मार्फ़त कही जाए तो वह ज्यादा सटीक और सार्थक ढंग से पहुंचती है।
सवाल – आपके व्यंग्य में जो पात्र होते हैं वे आसपास के ही होते हैं एकदम साधारण, आप इन्हें कैसे खोजते हैं ?
जवाब – मुझे लगता है व्यंग्य हो या कार्टून बहुत गहरे में कॉमन मेंन का ही बयान होता है। तथा सारा लेखन उसी के पक्ष में होता है। व्यवस्था या नोकरशाही का शिकार भी प्रायः आम आदमी ही होता है। ऐसे में हमारे आसपास जो साधारण लोग हैं, खेतिहर हैं गांव में रहते हैं, लाइन में खड़े होकर वोट देते हैं और बाद में तकलीफ उठाते हैं, रोते हैं, गिड़गिड़ाते हैं। ऐसे लोगों से किसी भी कवि का कथाकार का या व्यंग्यकार का जुड़ाव स्वाभाविक है। इन्हें खोजना नही पड़ता ये कलम की नोक पर हमेशा मौजूद रहते हैं। इन्हें जरा सा छू लो तो फफोले की तरह फुट पड़ते हैं। मुश्किल यह है कि व्यवस्था की तंग नजरी इन्हें देख नही पाती। इन्हें हर बार किसी टाउन हॉल या जंतर मंतर पर खड़े होकर चिल्लाना पड़ता है। ऐसे में हर संवेदनशील शील लेखक चाहे या अनचाहे इन्ही की बात करेगा।
सवाल – आप किस तरह की किताबें पढ़ते हैं,आपके पसंदीदा लेखक कौन हैं ?
जवाब – देखिए किसी एक लेखक का नाम लेना मुश्किल है।हाँ व्यंग्य मुझे सर्वाधिक पसंद हैं।परसाई, शरद जोशी श्रीलाल शुक्ल त्यागी ज्ञान चतुर्वेदी अजातशत्रु सबको पढ़ता हूँ।चेखव और बर्नाड शा को भी खूब पढा है।टालस्टाय की अन्ना कैरेनिना और दास्तोवासकी की अपराध और दंड मेरी पसंदीदा किताबें हैं।चार्ली चैप्लिन की आत्मकथा जिसे सूरज प्रकाश ने अनुदित की है बहुत अच्छी लगी स्टीफेन स्वाइग की कालजयी कहानियां अद्भुत है। आत्मकथाएं और संस्मरण खूब पढ़ता हूँ।विश्वनाथ त्रिपाठी द्वारा लिखित आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की जीवनी व्योमकेश दरवेश पिछले दिनों ही पढ़ी। भगवान सिंह की भारतीय सभ्यता की निर्मिति बहुत पसंद है। एमिली ब्रांटे की वुडरिंग हाइट और ऑरवेल का एनिमल फार्म, ला जवाब है।सरवेन्टिन का डॉन क्विकजोट भी कई बार पढा और मार्खेज का एकांत के सौ वर्ष भी।अलावे इसके हिंदी और उर्दू के जितने व्यंग्यकार हैं सबको पढ़ता हूँ।
सवाल – आपका प्रतिनिधि व्यंग्य कौन सा है, उसकी क्या विशेषताएं हैं
जवाब- लेखक के लिए यह बताना बहुत मुश्किल होता है कि वह अपनी किस रचना को प्रतिनिधि माने।वह तो हर रचना को प्रतिनिधि मानकर ही लिखता है।यह सवाल तो पढ़ने वालों से पूछा जाना चाहिए कि वे किस रचना को श्रेष्ठ मानते हैं। हालांकि उसमे भी टंटा है, क्योंकि हर पाठक का अपना टेस्ट और टेम्परामेंट होता है।
सवाल –वर्तमान साहित्यिक परिवेश को आप कैसे देखते हैं ? क्या महसूस करते हैं
जवाब – अच्छा है। बहुत निराशाजनक नही कहा जा सकता। छापे की तकनीक सुगम हो गई है, किताबें आसानी से छप जाती हैं। इधर साइबर संसार भी विस्तृत हुआ है लिहाजा हर कोई अपनी भावनाओं को व्यक्त कर लेता है। फिर वह परम्परागत अर्थों में साहित्य हो न हो। अनुभव तो उसमें भी होते हैं।यहां संपादक का डर नही है कि वह वापस भेज देगा। नेट पर कई बार अच्छी और दुर्लभ सामग्री भी उपलब्ध हो जाती है जो अन्यथा पढ़ने को नही मिलती। पत्रिकाएं तो अमूमन सभी नेट पर हैं। अच्छे या बुरे साहित्य का आकलन तो हमेशा की तरह समय के हवाले किया जाना चाहिए। अनुभव की गहराई से लिखा गया साहित्य सार्वकालिक होता है। साहित्य का सारा मामला गहरे पानी पैठ वाला है।
सवाल – आज व्यंग्य आत्यंतिक रूप से लिखा जा रहा है। प्रतिस्पर्धा बढ़ गई है। आप क्या सोचते हैं
जवाब – प्रतिस्पर्धा में बुराई नही है। प्रतिस्पर्धा स्वस्थ होनी चाहिए। आज व्यंग्य ज्यादा इसलिए लिखा जा रहा है कि आदमी व्यवस्था से त्रस्त है।सामाजिक और राजनीतिक छद्म बढ़ते जा रहा है। व्यंग्य लेखन कहीं न कहीं आदमी को आश्वस्त करता है कि विसंगतियों पर उसकी नजर है और उनसे लड़ने की तैयारी भी है। इसलिए व्यंग्य की प्रतिष्ठा ज्यादा है।यह अलग बात है कि व्यंग्य से भी आमूलचूल बदलाव सम्भव नही है। दरअसल व्यंग्य हो या कोई भी विधा हो, साहित्य से चमत्कारिक बदलाव नही होते, यह एक कारगर लेकिन धीमी प्रक्रिया है। हाँ व्यंग्य व्यवस्था के खिलाफ बगावती तेवर जरूर तैयार करता है।सोए हुओं को जगाता है। यही व्यंग्य लेखन की सार्थकता भी है।
आयोजन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय, संपादक ई- अभिव्यक्ति (हिन्दी)
संपर्क – 416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002 मोबाइल 9977318765
एक सार्थक प्रयास साहित्यकार
के साहित्यिक विधा के आत्मदर्शन से अवगत कराने का, जिससे पाठक वर्ग अवश्य ही
उनके लेखन दृष्टिकोण से परिचित होगा। लेखक प्रस्तुतकर्ता तथा पाठक वर्ग को विशेष धन्यवाद जिन्होनें
साक्षात्कार को पढ़ा तथा अपनी अमूल्य शाब्दिक प्रतिक्रिया से हमारा उत्साह बर्धन किया हम
उनका हृदय से आभार व्यक्त करते हैं।