श्री संजय भारद्वाज
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।
हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ रहे थे। हम संजय दृष्टि श्रृंखला को कुछ समय के लिए विराम दे रहे हैं ।
प्रस्तुत है रंगमंच स्तम्भ के अंतर्गत महाराष्ट्र राज्य नाटक प्रमाणन बोर्ड द्वारा मंचन के लिए प्रमाणपत्र प्राप्त धारावाहिक स्वरुप में श्री संजय भारद्वाज जी का सुप्रसिद्ध नाटक “एक भिखारिन की मौत”। )
रंगमंच ☆ दो अंकी नाटक – एक भिखारिन की मौत – 2 ☆ संजय भारद्वाज
अनुराधा- (रमेश को सम्मोहित करती है।) यहाँँ देखो… मेरी आँखों में देखो…मेरी आँखों में देखो… मेरी आँखों में देखो… (थोड़े से प्रतिरोध के बाद रमेश सम्मोहित हो जाता है।)
अनुराधा- क्या नाम है तुम्हारा?
रमेश- रमेश अय्यर।
अनुराधा- क्या करते हो?
रमेश- ‘नवप्रभात’ अख़बार का संपादक हूँ।
अनुराधा- उपसंपादक कौन है?
रमेश- अनुराधा चित्रे।
अनुराधा- कौन?
रमेश-अनुराधा चित्रे।
अनुराधा- बोलते रहो।
रमेश- अनुराधा चित्रे, अनुराधा चित्रे, अनुराधा चित्रे। (अनुराधा सम्मोहन समाप्त करती है।)
रमेश- अज़ीब-सा क्या हुआ था मुझे?
अनुराधा- श्रीमान रमेश अय्यर, प्रधान संपादक, ‘नवप्रभात’ को पता होना चाहिए कि अखबार की उपसंपादिका अनुराधा चित्रे को सम्मोहनशास्त्र का अच्छा ज्ञान है। इस ज्ञान को अभी-अभी वह साबित कर चुकी है। यदि संपादक महोदय चाहेें तो इस ज्ञान का उपयोग लोगों के भीतर के पशु को बाहर लाने के लिए किया जा सकता है।
रमेश- फैंटेस्टिक! वाह अनुराधा! सुपर्ब।
अनुराधा- और सुनो। मैंने तुम पर बहुत हल्के सम्मोहन का प्रयोग किया था। हम जिसका इंटरव्यू करेंगे, उस पर इसका गहरा सम्मोहन इस्तेमाल किया जा सकता है। इसके चलते उसे इंटरव्यू के दौरान पूछी बातें याद आने में सात से आठ दिन का वक्त लग सकता है।
रमेश- इतने वक्त में तो हम सीरिज़ पूरी कर प्रकाशित भी कर देंगे। बस अब देखो, हर तरफ नवप्रभात, नवप्रभात, नवप्रभात।
अनुराधा- ओके रमेश, मैं ऐसे चुनिंदा लोगों की लिस्ट तैयार करती हूँ जिन्होंने उस भिखारिन वहाँँ देखा था। मेरे ख्याल से हम आज दोपहर से इंटरव्यू शुरू कर सकते हैं।
रमेश- राइट। लिस्ट तैयार करके ले आओ। 1:00 बजे निकलते हैं। लंच बाहर कहीं होटल में ले लेंगे।….अरे अनुराधा, कल के फ्रंट पेज के लिए उस भिखारिन की लाश के चार फोटोग्राफ्स हैं। जरा देख लो, कौन सी डाली जाए। मेरे ख्याल से यह दो तो डाल नहीं सकते, कथित अश्लील हैं।
अनुराधा- यह बैक पॉश्चर डाल देना।
रमेश- देख लो फिर कहीं अश्लीलता, वल्गैरिटी….।
अनुराधा- नॉट अट ऑल। फ्रंट पोर्शन को लोग वल्गर मानते हैं और बैक पॉश्चर को आर्ट (हँसती है)। ओके देन, सी यू एट वन ओ क्लॉक, बाय।
रमेश- (तस्वीर हाथ में है) शहर की चर्चित भिखारिन की लाश।
प्रवेश दो
(प्रसिद्ध चित्रकार नज़रसाहब का घर है। यहाँँ-वहाँँ बेतरतीब-सा पड़ा सामान। एक ओर दो-तीन कुर्सियाँ। एक तिपाई। बीच में स्टैंड पर लगभग पूरी तैयार एक अर्द्धनग्न महिला की पेंटिंग। तिपाई पर रंग, ब्रश आदि बिखरे पड़े हैं। प्रकाश होने पर रमेश, अनुराधा और नज़रसाहब दिखाई देते हैं। ग़ज़ल का एक रेकॉर्ड बज रहा है।)
अनुराधा- नज़रसाहब, सुना है कि आपकी आने वाली पेंटिंग जिसे आपने ‘खूबसूरत’ नाम दिया है, उस मेनपोस्ट वाली भिखारिन से प्रेरित है।… तो ऐसा क्या था उस भिखारिन में जिसने आपको इतना प्रभावित किया।
नज़रसाहब- यह सच है कि हमारी पेंटिंग ‘खूबसूरत’ मेनपोस्ट वाली भिखारिन से प्रेरित है। दो-चार रोज से अखबारों में उस भिखारिन का चर्चा हो रहा था। नेचुरली हमारे भीतर का चित्रकार भी उसे देखने की तमन्ना करने लगा।
रमेश- तो आपने….
नज़रसाहब- भाई जब कोई बात कर रहे हों तो पूरा करने दिया करो। बीच में टोकने से मज़ा नहीं आता। हाँ तो क्या कह रहे थे हम?
अनुराधा- उस मेनपोस्ट वाली भिखारिन की चर्चा सुनकर आपके इच्छा होने लगी थी उसे देखने की।
नज़रसाहब- हूँ….और उस इच्छा के चलते हम एक दिन…. जुमां के पहले वाला दिन था, हाँँ, बृहस्पतिवार की बात है। सो बृहस्पतिवार को हमने फैसला कर लिया उस भिखारिन को देखने का।…… ऐसे मुँँह क्या देख रहे हो तुम दोनों?…. पूछो फिर क्या हुआ?…. एकदम नौसिखिए, नए-नए जर्नलिस्ट हुए दिखते हो। इंटरव्यू लेते वक्त बीच-बीच में टोकते रहना चाहिए।
रमेश- जी आपने ही तो कहा था कि…. एनीवे, हम जानना चाहेंगे नज़रसाहब कि आपने उस भिखारिन को कब देखा? आई मीन कौन से दिन, किस वक्त, दोपहर, शाम, रात या फिर सुबह?
नज़रसाहब- किबला….(पानदान में पान थूकता है।) कहा ना कि बृहस्पतिवार के अख़बार में उसके बारे में पढ़ा तो सोच लिया कि आज तो इस बला को देखना ही पड़ेगा। मियाँ दोपहर हो गई थी नहाने-धोने में। तब तक बड़े बेचैन-से रहे हम। लगता रहा कि बस उसे जब तक एक बार देख लेंगे चैन नहीं पड़ेगा। तैयार होकर करीबन दो बजे निकले होंगे घर से। शायद सवा दो बज रहा हो। हो सकता है कि ढाई बजा हो। अबे कमबख़्त वक्त भी तो ठीक से याद नहीं रहता ना।
रमेश- जब आप मेनपोस्ट पहुँँचे…
नज़रसाहब- ठहरो यार! कोई भी बात पूरी बताने दिया करो। फिर अगला सवाल पूछो….और ये तुम टोका मत करो बीच में। हमारा सारा टोन खराब हो जाता है।.हाँँ तो..
अनुराधा- आप कह रहे थे कि आप की घड़ी में सवा दो बजा था।
नज़रसाहब- हां तो सवा बजे हम घर से निकले। नीचे जाकर टैक्सी के लिए खड़े हो गए। तुम लोग तो जानते ही हो कि आजकल तो टैक्सी भी जल्दी नहीं मिलती। खड़े रहे, खड़े रहे.., खड़े-खड़े तकरीबन आधा घंटा गुज़र गया।
रमेश- तो आधा घंटे बाद आपको टैक्सी मिल गई।
नज़रसाहब- मिलना ही थी। दरअसल उस आधा घंटे में कोई टैक्सी वहाँँ से गुज़री ही नहीं। जो पहली टैैक्सी आई, ख़ुुुद-ब-ख़ुद आकर ठहर गई पास। बड़े अदब से दरवाज़ा खोला बेचारे ने और इज्ज़त से बोला, ‘ तशरीफ़ लाइए नज़रसाहब।’ हम तो भौंंचक्के रह गए। पूछा, ‘मियाँँ, पहचानते हैं आप हमें?’ जानते हैं क्या जवाब दिया उसने? बोला, ‘आपको तो सारा हिंदुस्तान जानता है। इतना भी बेशर्म सिटिजन नहीं हूँ जो आपको न पहचानूँ। नज़रसाहब को नहीं जाननेवाला हिंदुस्तान को नहीं जानता।’… यह बात ख़ास तौर पर नोट करें और लिखें अपने परचे में।… और एक और ख़ास बात यह कि टैक्सीवाले ने हमसे पैसे भी नहीं लिए।
रमेश- तो आप पहुँँच गए मेनपोस्ट पर।
नज़रसाहब- पहुँँचना ही था भाई।
रमेश- जब आप की निगाहें पहले पहल उस भिखारिन पर पड़ी तो आपके मन में आई पहली, तुरंत पहली प्रतिक्रिया क्या थी?
नज़रसाहब- एक मिनट मियाँ। इस पेंटिंग के बारे में एक आइडिया आया है, ज़रा उसको पूरा कर लूँ। (पेंटिंग पर ब्रश से कुछ स्ट्रोक्स मारता है। रमेश, अनुराधा एक दूसरे को देख कर मुस्कराते हैं। काम पूरा करने के बाद पीकदान में पीक थूँकता है।)
क्रमशः …
नोट- ‘एक भिखारिन की मौत’ नाटक को महाराष्ट्र राज्य नाटक प्रमाणन बोर्ड द्वारा मंचन के लिए प्रमाणपत्र प्राप्त है। ‘एक भिखारिन की मौत’ नाटक के पूरे/आंशिक मंचन, प्रकाशन/प्रसारण, किसी भी रूप में सम्पूर्ण/आंशिक भाग के उपयोग हेतु लेखक की लिखित पूर्वानुमति अनिवार्य है।
© संजय भारद्वाज
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
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