श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। 

हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ रहे थे। हम संजय दृष्टि  श्रृंखला को कुछ समय के लिए विराम दे रहे हैं ।

प्रस्तुत है  रंगमंच स्तम्भ के अंतर्गत महाराष्ट्र राज्य नाटक प्रमाणन बोर्ड द्वारा मंचन के लिए प्रमाणपत्र प्राप्त धारावाहिक स्वरुप में श्री संजय भारद्वाज जी का सुप्रसिद्ध नाटक “एक भिखारिन की मौत”। )

? रंगमंच ☆ दो अंकी नाटक – एक भिखारिन की मौत – 3 ☆  संजय भारद्वाज ?

नज़रसाहब- एक मिनट मियाँ। इस पेंटिंग के बारे में एक आइडिया आया है, ज़रा उसको पूरा कर लूँ। (पेंटिंग पर  ब्रश से कुछ  स्ट्रोक्स मारता है। रमेश, अनुराधा एक दूसरे को देख कर मुस्कराते हैं। काम पूरा करने के बाद पीकदान में पीक थूँकता है।)है।)

नज़रसाहब- हाँँ क्या पूछा था? टोक भी लिया करो भाई बीच-बीच में। वरना हम एक बार अपनी पेंटिंग में खो गए तो फिर बैठे रहियेगा यहींं दो, चार, पाँच दिन। नज़रसाहब यूँँ ही नज़रसाहब तो बने नहीं। एक बार अगर पेंटिंग में लग गए तो अरे मियाँँ चार-चार दिन होश नहीं रहता। नौकर खाना रख जाता है। खाना ज्यों का त्योंं पड़ा रहता है। बेचारा फिर वापस ले जाता है। फिर रख जाता है, फिर वापस। (हँसता है।) ये चार-चार दिन खयाल ना रहने वाली बात नोट कर लें। अपने अखबार में ज़रूर लिखें।

अनुराधा- नज़रसाहब, आपने जब उस भिखारिन को देखा तो वह क्या कर रही थी? किस तरह के कपड़े लपेटी थी? कैसी लग रही थी? आख़िर ऐसा क्या था कि उसने नज़रसाहब जैसे जाने-माने चित्रकार को इतना प्रभावित किया कि वे उसे अपनी पेंटिंग का विषय बना बैठे!

रमेश-  पहली प्रतिक्रिया वाली बात भी पूछ लेना अनुराधा।

नज़रसाहब- हमें ध्यान है। है ध्यान हमें। एक-एक कर सारी बातों का खुलासा करेंगे हाँ..(पीक थूकता है)।  कहाँ थे हम?

रमेश- मेनपोस्ट पर।… मतलब मेनपोस्ट तक पहुँच गए थे।

नज़रसाहब- हां जब हम मेनपोस्ट पर उतरे और सामने वाले फुटपाथ पर नज़र डाली तो वहाँ अच्छी-ख़ासी भीड़ इकट्ठा हो रखी थी। अब हम तो उसे यों जाकर देख नहीं सकते थे न। आख़िर नज़रसाहब कोई ऐसे आदमी तो हैं नहीं कि कहीं भी भीड़ में खड़े हो जाएँ। भई अपने फैन्स जीना मुश्किल कर दें।

रमेश- तो फिर आपने…?

नज़रसाहब- उस फुटपाथ के साथ ही हमारे हुसैन मियाँ घड़ीसाज़ हैं न,  हुसैन वॉच रिपेअर्स, वह दुकान है ना। पहुँच गए वहाँ, कह दिया घड़ी थोड़ा पीछे चलती है। हुसैन मियाँ ने कुर्सी दी, चाय का इंतज़ाम किया तो हम वहाँ आराम से बैठ गए। वहाँ से  हमारे और भिखारिन के बीच बमुश्किल पाँच-सात हाथ का फ़ासला होगा। हमारी नज़र उस भिखारिन पर पड़ी और देखते ही रह गए, मियाँ देखते ही रह गए हम। करीबन उन्नीस-बीस साल की छोकरी। उलझी हुई बालों की लटों से बाहर आती हवा से उड़ती थोड़ी-सी जुल्फें। पतली, हल्की-सी उठी हुई नाक, बहुत बड़ी-बड़ी बोलती आँखें, आसमान की ओर देखती हुई, दुनिया से बेभान, ख़ूबसूरती से झुके हुए कंधे। अपने भीतर सारे जहां की खूबसूरती समेटे, दुनिया भर के जोबन से लदे दो घड़े,…सब कुछ यूँ ही खुला छोड़े, अधनंगी..! बदन के साथ लाजवाब एंगल बनाए पतली-सी कमर, कमर के नीचे केवल एक निकर पहने…, दोनों टांगें मोड़े, उन टांगों पर चढ़ आई मिट्टी की लकीरें भी भीतर की ख़ूबसूरती को छिपा नहीं पा रही थी…देखते ही रह गए हम…और हमने उन बोलती ख़ूबसूरत आँखों, सैलाबी जवानी की मुमताज़ मूरत, खूबसूरती को खुद में खूबसूरत ढंग से समेटे उस ज़िंदा पेंटिंग को नाम दिया ‘खूबसूरत।’

रमेश-  नज़रसाहब, इस खूबसूरत ज़िंदा पेंटिंग को आपने भीख में सौ-दो सौ रुपये तो दे ही दिए होंगे।

अनुराधा- रमेश, यह भी कोई पूछने की बात है। ‘खूबसूरत’ पर रिकॉर्ड दाम की बोली चढ़ेगी। इस पेंटिंग की प्रेरणा को नज़रसाहब ने रुपयों से तौलने की सोची हो तो भी ताज्ज़ुब नहीं होना चाहिए।

नज़रसाहब- लो कर लो बात। तुम दोनों ने कभी किसी तरह की छोटी-मोटी पेंटिंग भी की है।… नहीं ना.., तभी इस तरह की वाहियात बातें कर रहे हो। हम तो उसके किसी एंगल में एक परसेंट भी फर्क नहीं चाहते थे। तीन दिन हर रोज हुसैन की दुकान में बैठकर उसे देखते रहे। हुसैन मियाँ भी समझ गए थे कि घड़ी तो बहाना है, कोई और निशाना है।….. अच्छा हुआ इन तीन दिनों में शायद उसे किसी ने कुछ नहीं दिया था। उसके बदन में एक सूत का भी फ़र्क आ जाता तो ऐसी ग्रेट पेंटिंग नहीं बन पाती, कभी नहीं बन पाती। इस पेंटिंग का पहला एक्जिबिशन हम लंदन में करेंगे। वहां रॉयल फैमिली के एक मेम्बर के हाथों इसका इनॉगुरेशन होगा। तारीख अभी तय नहीं हुई है  पर अगले महीने के पहले हफ्ते के आसपास होगा।… अब खास तौर से लिखें कि इनागुरेशन यूके के राजघराने के एक मेम्बर के हाथों होगा। ‘खूबसूरत’, ‘खूबसूरत’ एन इंटरनेशनल पेंटिंग बाय नज़रसाहब, द इंटरनेशनल पर्सेनेलिटी। (हँसता है)।

रमेश- नज़रसाहब, यह तो हुई चित्रकार नज़रसाहब की प्रतिक्रिया। मैं नज़रसाहब के भीतर छिपे पुरुष, एक मर्द की ईमानदार और सच्ची प्रतिक्रिया जानना चाहूँगा।

नज़रसाहब- क्या मतलब?

रमेश-  मतलब कि.. एक जवान औरत को खुले बदन देखकर भीतर का मर्द कहीं ना कहीं तो…

नज़रसाहब- लाहौल विला कूवत, लाहौल विला कूवत!  ऐसे ओछे और छिछोरे सवाल नज़रसाहब से करने की हिम्मत कैसे हुई तुम्हारी? शर्म आनी चाहिए। नज़रसाहब आज केवल हिंदुस्तान में नहीं, दुनिया में एक जाना- माना नाम है। उसके कैरेक्टर पर इस तरह कीचड़ उछालना.., लाहौल विला कूवत! गंदगी की भी कोई हद होती है! (अनुराधा नज़रसाहब को सम्मोहित करती है।)

अनुराधा-  मेरी आँखों में देखो, मेरी आँखों में देखो, मेरी आँखों में देखो।

(नज़रसाहब का सम्मोहित होना। अनुराधा, दर्शकों की ओर पीठ करके खड़ी होती है। कुर्ते के ऊपर डाले जैकेट को उतारने की मुद्रा में फैलाती है। पात्र की वेशभूषा के अनुसार ऐसा संकेत देना है जैसे वह भिखारिन की तरह शरीर के ऊपरी भाग को अनावृत किए हुए है। नज़र का बौखलाना।)

रमेश-  नज़र, तुम्हें यह चाहिए न?

नज़रसाहब-  हाँ,..हाँ..।

रमेश-  भिखारिन को खुले बदन देखकर कैसा लगा?

नज़रसाहब- अच्छा, बहुत अच्छा। बहुत खूबसूरत थी वह। ग़ज़ब की ख़ूबसूरत। तीन दिन लगातार उसका एक-एक अंग देखा है। कमबख्त ने पागल कर दिया था। ऐसा मन होता था…

क्रमशः …

नोट- ‘एक भिखारिन की मौत’ नाटक को महाराष्ट्र राज्य नाटक प्रमाणन बोर्ड द्वारा मंचन के लिए प्रमाणपत्र प्राप्त है। ‘एक भिखारिन की मौत’ नाटक के पूरे/आंशिक मंचन, प्रकाशन/प्रसारण,  किसी भी रूप में सम्पूर्ण/आंशिक भाग के उपयोग हेतु लेखक की लिखित पूर्वानुमति अनिवार्य है।

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
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