डॉ कुंवर प्रेमिल
☆ लघुकथा – किताबें ☆
वे पाँच थे. पाँचों मिलकर अपनी-अपनी तरह से किताबों की व्याख्या कर रहे थे.
पहला बोला- “किताबें भविष्य की निर्माणी हैं. समय की चाबी हैं. किस्मत का दरवाजा यानी खुल जा सिम- सिम हैं.”
दूसरा बोला – “दरअसल हम किताबें नहीं पढ़ते बल्कि किताबें हमें पढ़ती हैं.”
तीसरा – “समय की पहरुयें है किताबें.”
चौथा – “किताबें हूर हैं.”
पांचवा – “चलो जी, अब बहुत हो गई किताबों की चमचागिरी. कल से पेट में दाना नहीं गया है. खाली पेट किताबें नहीं पढ़ी जा सकती. ये बोरे में भरी किताबें कबाड़ी को बेचने जा रहा हूँ, ताकि भोजन का ताना बाना बुना जा सके.”
किताबें भूख की बलि चढा दी गई.
© डॉ कुँवर प्रेमिल
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≈ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
सार्थक लघुकथा