डॉ कुंवर प्रेमिल
☆ लघुकथा – जगह ☆
उसके पास कुल जमा ढाई कमरे ही तो हैं. एक कमरे में बहू बेटा सोते हैं तो दूसरे में वे बूढ़ाऔर बूढ़ी. उनके हिस्से में एक पोती भी है जो पूरे पलंग पर लोटती रहती है. बाकी बचे आधे कमरे में उनकी रसोई और उसी में उनका घर गृहस्थी का सामान ठूंसा पड़ा रहता है.
“कहीं दूसरा बच्चा आ गया तो…” पलंग पर दादी अपनी पोती को खिसकाकर देखती है.
“बच्चे के फैल पसरकर सोने से हममें से एक को जागना पड़ता है” – दादा कहता है.
“दूसरे बच्चे के आने पर तो हम दोनों को ही जागना पड़ेगा” – दादी बोलती है.
“तब तो हमारे लिए पलंग पर जगह ही नहीं बचेगी”.- दोनों एक साथ बोलते हैं.
“भागयवान सारा झगड़ा इस जगह का ही तो है. जब तीसरी पीढ़ी जगह बनाती है, तो पहली जगह गँवाती है”.
“न जाने कैसी हवा चली है कि आजकल बहुएं बच्चों को अपने पास नहीं सुलाती, वरना थोड़ी जगह हम बूढा-बूढ़ी को भी नसीब न हो जाती”.
© डॉ कुँवर प्रेमिल
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≈ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
सार्थक तथा विचारणीय रचना ,अति सारगर्भित रचना को बधाई अभिनंदन अभिवादन आदरणीय श्री