डॉ कुंवर प्रेमिल
☆ लघुकथा – रोटी ☆
एक पेड़ के नीचे बैठकर कुछ लोग रोटी चालीसा पढ़ रहे थे . पास ही में एक मलंग अपनी ढपली अपना राग सुना रहा था.
एक व्यक्ति बोला – जब से रोटी बनी है तबसे वह अपने ही मूल स्वरूप में है. आकार प्रकार, लंबाई-चौडाई, व्यास, त्रिज्या लगभग वही. थोड़ी बहुत ज्यादा थोड़ी बहुत कम.
दूसरा व्यक्ति बोला – स्पष्ट है कि उस लघु आकार रोटी में भूख है, वहशीपन है, दरिंदगी है, पागलपन गहरे बहुत गहरे तक छुपा है.
तीसरा बोला – वही रोटी जब पेट में चली जाती है तो उमंग, सरलता, सौजन्यता, बुद्धि, चातुर्य, साहित्य, कला, आनंदोत्सव ले आती है. रोटी जीवन है यार. इस असार संसार में रोटी वह नाव है जिससे जीवन नैया पार लगतीं है.
चौथा बोला – हाँ भाईयो, कितने रूप-स्वरूप हैं रोटी के, जिसके भाग्य में जैसा रूप हासिल हो जाए. बड़ी कातिल होती है रोटी. इसने हरिश्चन्द्र जैसे राजा को भी डोम की नौकरी करा दी थी.
सबकी बातें सुनकर मलंग बोला- बच्चों, जरा मेरी ओर देखो. मैं मलंग हूं. मेरे पास कुछ नहीं है. बिल्कुल फक्कड़. पर मुझे रोटी की कमी नहीं है. उस तरफ देखो, एक महिला पत्तल में रोटी-दाल लिए चली आ रही है.
उन लोगों को रोटी का गणित समझ के परे था.
© डॉ कुँवर प्रेमिल
एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782
≈ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈