डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’
( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तंत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं। आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।
☆ व्यंग्य – सस्ते का चक्कर ☆
(हम आभारी है व्यंग्य को समर्पित “व्यंग्यम संस्था, जबलपुर” के जिन्होंने 30 मई 2020 ‘ की गूगल मीटिंग तकनीक द्वारा आयोजित “व्यंग्यम मासिक गोष्ठी’”में प्रतिष्ठित व्यंग्यकारों की कृतियों को हमारे पाठकों से साझा करने का अवसर दिया है। इसी कड़ी में प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध लेखक/व्यंग्यकार डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी का बुंदेली भाषा का पुट लिए एक विचारणीय व्यंग्य – “सस्ते का चक्कर”। कृपया रचना में निहित मानवीय दृष्टिकोण को आत्मसात करें )
काय बड्डे, जो का हो गओ?
कल तक तो बड़ी-बड़ी डींगें हाँकत रहे! आज इते दुबके बैठे हो। रामू ने जगदीश से कहा।
जगदीश बोला: कुछ मत पूछो रामू। किस्सू भैया का दाँव उल्टा पड़ गया। जिस नेता को ये अपना सगा समझते थे, उन्होंने ही कन्नी काट ली। जिनकी दम पर ये उछल कूद मचाते रहते थे, उन्होंने ही अपना हाथ खींच लिया, बस इतना पता चलते ही अगले दिन बजरंगी महाराज ने चढ़ाई कर दी। चार-छह लठैत-कट्टाधारी साथ में लाये और चौराहे वाला मकान खाली करवा दिया। किस्सू भैया की एक न चली। भीगी बिल्ली बने सिकुड़े खड़े रहे।
रामू बोला: हमाई जा समझ में नईं आबे कि जब लड़बे-झगड़बे की औकातई नैयाँ तो औरों के दम पे। जे किस्सू भैया काय इतरात रहे। कछु अपनी भी दम भी भओ चहिए।
जगदीश बोले: बात तो आपने सही कही रामू , लेकिन किस्सू भैया पार्षद की टिकिट के जुगाड़ में लगे हैं। अपना दबदबा बढ़ाने के चक्कर में मौका पाकर अपने से कमजोरों पर रौब झाड़ने लगते हैं। अब इस बार जब इनके नेता जी ने खुद ही पार्टी बदल ली तो सारे समीकरण बदल गए। भला ऐसे समय में किस्सू जैसे छुटभैयों के चक्कर में कोई अपनी लुटिया क्यों डुबोयेगा। आखिर किस्सू भैया के नेता जी को भी तो नई पार्टी में अपनी साख जमाना है। वैसे सही बात तो ये है कि किस्सू के पास कोई दमदारी या धन-दौलत तो है नहीं। जीवन भर चमचागिरी ही करते आये हैं। दो-चार बड़े नेताओं से परिचय क्या हो गया, टिकट की दावेदारी ठोकने लगे।
रामू बोला: तो अब का बचो है इनके पास?
किस्सू भैया ने पानी पी-पीकर जितनो कोसो है दूसरी पार्टी वालों खें, अब वे इन्हें अपने पास तक नें बिठेंहें, टिकट की बात तो बहुत दूर की है। इनकी ओछीं हरकतें, चाहे जब मार-पीट, लड़ाई-झगड़े और जा कलई की बेइज्जती कम है का। इनकी पार्टी वाले भी इन्हें टिकट देबे की पहलऊँ सौ बार सोचहें। बेचारे किस्सू भैया। का सोचत रयै और का हो गओ। अब तो तुम्हाये किस्सू न घर के रहे नें घाट के, तुम्हईं बताओ हम सही कै रये की नईं।
जगदीश: अरे भाई, मैं क्या बताऊँ। मैं कोई नेता-वेता तो हूँ नहीं। पड़ोसी होने के नाते साथ में उठना-बैठना तो पड़ता ही है न। अब कल से सीधे दुकान ही जाया करूँगा और अपना धंधा में अपना ध्यान लगाऊँगा।
रामू: और जो किस्सू भैया ने तुम्हें ओई चौरस्ते बारे मकान खें सस्ते में दिलाबे की बात कही ती, अब ओ को का करहो?
जगदीश: अरे रामू भैया, अब छोड़ो उस बात को, अब जो पैसे हमने उन्हें दिए थे, वे तो डूबे ही समझ लो, कोई लिखा पढ़ी तो की नहीं थी। और फिर किस्सू जैसे लोगों से पैसे वापस लेना टेढ़ी खीर है।
हमें तो इस विपदा की घड़ी में कोई रास्ता ही सुझाई नहीं दे रहा है।
रामू: अच्छा तुम्हईं बताओ जगदीश भैया कि हमनें तुम्हें कितनी बार समझाओ रहो कि अपनी दुकान की तरफ ध्यान लगाओ लेकिन तुमने लालच के चक्कर में एकऊ नें मानी। अब खुदई भुगतो और घर बारों को भी अलसेट में डालो। अब हमारी एक सलाह मानो, आज के बाद तुम भूल खें भी बो किस्सू के पास नें जईयो, गए तो बो उल्टे चार-छह लात-घूँसे मार खें भगा देहे और यदि तुमने थाने में रिपोट लिखबा भी दई तो ओ के डर से तुम्हें कोई गवाह तक नें मिलहे।
जगदीश: अरे भाई, आप भी न, सांत्वना और समझाने की जगह हमें डरा रहे हो। कोई उपाय हो तो वह बताओ।
रामू: सुनो जगदीश भैया, किस्सू को पैसा देने के पहले तुमने हमसे पूछी रही का? कोई सलाह लई रही का? अब तुम उनके चंगुल में फँस गए हो तो अब हम का बताएँ तुम्हें। अब तो बस उन पैसों खें भूलई जाओ और भगवान के ऊपर छोड़ दो। कायसें के कभऊ किस्सू खें सद्बुद्धि आई तो बो लौटा भी सकत है।
जगदीश: काश रामू, मैंने अपनी घरवाली की बात मान ली होती तो ये दिनन देखना न पड़ते। अब तो वो महीनों रोज सौ-सौ सुनाएगी। पैसों की अलग चिंता और अब बीवी के दिनरात ताने, कहाँ फँस गया मैं रामू!
रामू: और ले लो सस्ते में मकान। सस्ते का चक्कर होता ही ऐसा है जिसमें अक्सर लुटिया डूबतई है। भैया हम भले और हमारी मजदूरी भली। हम तो घरें जात हें, पेट में चूहे कूद रयै हें।
और बैठ लो अपने किस्सू भैया के संगे। हमारी मानो तो अब ओ से सौ गज दूरई रहियो!!! जाते जाते एक और सलाह दे गया रामू..
यहाँ जगदीश के दिमाग में किस्सू भैया, नेता जी, बजरंगी महाराज, मकान, डूबे पैसे, रामू के कटाक्ष, और बीवी के ताने चलचित्र की भाँति दिखाई दे रहे थे। जगदीश अब किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति में था।
© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’
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“e-abhivyakti” में अपना व्यंग्य प्रकाशित होने पर मुझे बेहद खुशी है, यह खुशी तब और बढ़ती है, जब लोग उस पर समीक्षात्मक टिप्पणी करते हैं।
आभार श्री बावनकर जी।
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