श्री शांतिलाल जैन
(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी के स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल में आज प्रस्तुत है उनका एक अतिसुन्दर व्यंग्य “इस अंजुमन में आपको आना है बारबार… ”।)
☆ शेष कुशल # 29 ☆
☆ व्यंग्य – “इस अंजुमन में आपको आना है बारबार… ” – शांतिलाल जैन ☆
किसी भी अस्पताल में सबसे कठिन समय वो नहीं होता जब आप दर्द से बेपनाह कराह रहे होते हैं, वो होता जो डॉक्सा द्वारा छुट्टी कर देने का निर्णय दिए जाने और फायनली डिस्चार्ज टिकट हाथ में आ जाने के बीच गुजरता है. जमानत हो जाती है, ऑर्डर की कॉपी जेल अधिकारी तक नहीं पहुंच पाती. छुट्टी हो जाती है डिस्चार्ज टिकट बिलिंग काउंटर तक नहीं पहुंच पाता. अस्पताल के गेट की मजबूती जेल-गेट से कम नहीं होती श्रीमान. आप समय से बाहर आ सकें के प्रयास में आपका अटेंडेंट बदहवास काउन्टर-दर-काउन्टर भटकता है और आप हाथ पर लगे कैनुला को बेबसी से देखते हुए हर थोड़ी देर में पत्नी को फोन पर बताते हो बस कुछ ही देर में घर पहुँच जाएंगे, खाना मत भेजना. ‘कुछ देर’ का मतलब मिनिमम साढ़े छह घंटे तो होता ही है.
ताज़ा हादसा अपन के साथ हुआ. दादू आठ दिन से अस्पताल में भर्ती था और अपन उसकी तीमारदारी में लगे थे. राउंड पर आए डॉक्सा ने सुबह नौ बजकर तेरह मिनिट पर लंबे लंबे चार्ट पर निगाह मार कर, नर्स से चाइनीज लेंग्वेज़ में कुछ पूछा. नर्स ने मंगोलियन भाषा में जवाब दिया. मुझे पक्का यकीन है कि डॉक्सा ने जो कहा वो नर्स नहीं समझी और नर्स के कहे को समझने की जरूरत डॉक्सा ने नहीं समझी. जो भी हुआ, डॉक्सा ने कहा – ‘आज आपकी छुट्टी कर देते हैं’. अंधा क्या चाहे श्रीमान – दो आँखें. दादू का बस चलता तो वो सीढ़ी से उतरने का धैर्य भी नहीं रखता, खिड़की से कूद कर घर चला जाता. फिलवक्त दादू सातवें आसमान पर था और अपन उसके साथ थे. फौरन से पेश्तर बेटे को मोबाइल पर कहा कि वो कार लेकर हमको लिवाने आ जाए. सामान भी रहेगा चद्दर, पतीली, चम्मच, बची दवाईयां, सक्कर की पुड़िया, बिस्कुट का पूड़ा और आधी घिसी हुई साबुन की बट्टी. दस हज़ार रुपयों के खून से सराबोर दो जंगी काली डरावनी एमआरआई की तस्वीरें, धमनियों और किडनियों से बहे अलग अलग द्रवों की जांच रिपोर्टें.
नादां थे हम जो पंद्रह मिनट में अस्पताल छोड़ देने की उम्मीद पाल बैठे थे. अभी तो दास्तां-ए-डिस्चार्ज शुरू हुई थी, कुछेक ट्रेजिक मोड आने बाकी थे. साढ़े ग्यारह बज चुके थे और डिस्चार्ज किए जाने का आदेश उसी फ्लोर के नर्सिंग स्टेशन तक भी पहुंचा नहीं था. दादू सातवें से उतरकर पांचवें आसमान पर आ गया था. मैं नर्सिंग स्टेशन पर खड़ा था और वे मेरी तरफ देख भी नहीं रही थीं. इन आठ दिनों में ही मैंने जाना कि आँकड़े भरने, रिकार्ड रखने और उसी में तल्लीन रहने में हमारे अस्पतालों ने भारतीय सांख्यिकीय संस्थान से बाज़ी कैसे मार ली है. जब जब मैं नर्स को बुलाने जाता वे मरीजों की फ़ाईल्स में शरीर का तापमान, खून का दबाव, शकर की मात्रा और यूरिन का आऊटपुट जैसी जानकारी दर्ज़ करने में इस कदर तल्लीन होती कि मुझे चाबी से काउन्टर का टॉप पर तीन बार खट-खट करना पड़ता. जीडीपी और मुद्रास्फीति के आंकड़ों को दर्ज़ करनेवाले अर्थशास्त्रियों को नर्सिंग स्टॉफ से सीखना चाहिए – डाटाशीट कैसे फ़िल-अप की जाती है. नर्सें सुनिश्चित करतीं कि मरीज को इंजेक्शन लगे न लगे उसके लगाए जाने की इंट्री चार्ट में जरूर हो. वहाँ खड़े एक जूनियर डॉक्टर ने पुष्टि की – यस इनको डिस्चार्ज देना है. कहा– आप अपने रूम में बैठिए हम पर्चा डॉक्सा से साईन करवाके काउन्टर पर भिजवाते हैं. और डॉक्सा ? वो अब तक ओटी में प्रवेश कर गए थे. वहाँ से बाहर कब निकलेंगे ये नजूमी का तोता ही बता सकता था जो आज अस्पताल के बाहर फुटपाथ पर बैठा नहीं था. दादू पाँचवे से तीसरे आसमान पर उतर आया.
इस बीच एक सफाईकर्मी महिला ने रोजाना से बेहतर पोंछा मारा. मुंह में अतिरिक्त मिश्री घोलकर पूछा – ‘बाबूजी छुट्टी हो गई आपकी.’ उसने बताया कि उसकी शिफ्ट खत्म होने वाली है और वो घर जानेवाली है. शेष दादू की समझ पर छोड़ा गया कि वो अपनी जेब से आरबीआई गवर्नर का हस्ताक्षर किया हुआ वो पत्र उसे सौंप दे जिस पर लिखा हो ‘मैं धारक को पचास रूपये अदा करने का वचन देता हूँ’. पेमेंट सक्सेसफुल का मेसेज रिसीव्ड हुआ.
दादू के हाथ में कैनुला उसके अस्पताल का बंदी होने की पहचान थी जिससे वो जल्द से जल्द छुटकारा पाना चाहता था. चेची विवश थी, कैनुला हटाने का ग्रीन सिग्नल उसे अभी मिला नहीं था. दादू कभी कैनुला की टोपी घुमाता कभी उसके बाहर निकल आए खून की बूंदों से चिंतित होता. उसके आसपास का हिस्सा सूज़ गया था. वो दिल बार बार खड़ा करने की कोशिश करता जो बार बार बैठा जा रहा था. पथराई आँखों से कभी घड़ी की ओर देखता कभी छत के पंखे को. जेल होती तो सुरंग खोदकर भागा जा सकता था, कमरा नंबर 407 से फरार होने की गेल न थी. न ही बेडशीट पंखे में बांधकर आत्महत्या कर लेने कोई गुंजाईश थी.
पैथ-लैब, कैथ-लैब, पल्मोनरी, एक्स-रे विभाग, मेडिकल शॉप, केंटीन का मेरी-गो राउन्ड झूला था जिसमें नो-ड्यूज पाने की गरज से मैं गोल-गोल घूमता रहा. मेन गेट में घुसते ही बायीं ओर बने मंदिर में से गणेशजी मुझे कभी अनुनय, कभी गुस्सा, कभी खीज, तो कभी शब्दशः बाल नोचते हुवे देखते रहे मगर कुछ कर न सके. वे मरीजों को शीघ्र स्वस्थ होने का आशीर्वाद तो दे पा रहे थे मगर स्टॉफ से इफिशियंसी से काम करवा पाना उनके भी बस का नहीं था. मैंने पूछा – प्रभु, कैशलेस होने का मतलब सिर के केश का लेस होते जाना तो नहीं होता ना!! प्रभु इस पर तो चुप्पी साध गए लेकिन उन्होने मुझे धीरे से समझाया कि यहाँ उनकी टेरेटरी मंदिर तक ही सीमित है – शेष पूरे परिसर में केवल आदरणीया लक्ष्मीजी का ही आदेश चलता है.
अस्पताल की पूरी कोशिश थी कि ओरिजिनल मरीज भले ही डिस्चार्ज होकर घर चला जाए मगर उसके अटेंडेंट को वे हायपर टेंशन, एङ्क्साईटी, उच्च रक्तचाप के केस में रोक कर एडमिट कर सकें. हमारा वार्ड चौथी मंज़िल पर था, बिलिंग काउंटर धरातल पर. और लिफ्ट ? केवल मरीजों और डॉक्टरों के लिए थी. ऊपर नीचे होने में सांस फूल जाती, धड़कने असामान्य आवाज़ करने लगती, बीपी बढ़ने लगता, घुटने पिराने लगते थे. तीन बार मैं बिलिंग काउन्टर पर क्लियर करके आया था कि हमारा कैशलेस तो है ही, बीस हज़ार एक्सट्रा जमा है. हर बार काउन्टर पर कोई नया शख्स होता हर बार मैं उसे पूरी रामायण सुनाता. आखिरी में वो मुझसे पूछता सीता राम की कौन थी ?
दादू अंतिम ढाई आसमान भी नीचे उतर आया. उसकी पॉज़िटिविटी ही उसे बचाए हुवे थी. सिस्टम की बेदिली में भी उसने कुछ पॉज़िटिव खोज लिया था. उसने बताया कि दूसरी विंग में आज सुबह मृत घोषित किए गए आत्मारामजी सहगल जीवित हो उठे हैं. पहचान की गफलत में यमदूत से आत्मा ले जाने में मिस्टेक हो गई थी. चित्रगुप्त के पॉइंट-आउट करते ही यमदूत जब वापस लौटा तो पाया कि सर्टिफिकेट जारी किए जाने में हो रही देरी से डेड-बॉडी अभी तक अस्पताल में ही पड़ी है. उसने राहत की सांस ली और सहगल साहब की आत्मा फिर से उसी शरीर में रोपकर चला गया.
बहरहाल, हमारे पुण्य कर्म का उदय हुआ. अभी शाम के पाँच बजने में दस मिनिट कम हैं. कैनुला निकाल दिया गया है. जो सुबह सातवें आसमान पर थे अब सड़क पर हैं. हमसे ज्यादा समझदार तो बेटा निकला. सुबह ही उसने कह दिया था – पापा आप तो ओला कर लेना या ऑटो ले लेना. ऑफिस से उसकी एक दिन की छुट्टी बच जो गई है.
और आप श्रीमान ! दास्तां-ए-डिस्चार्ज पूरी हुई मानकर मत चलिएगा… आनेवाले सप्ताहों में कई चक्कर लगाने पड़ेंगे – कुछ जाँचे बाहर भेजी हैं उनकी रिपोर्ट आनी बाकी है, पक्का बिल लेना है, सील लगवाना है, क्लेम फॉर्म में निकली क्वेरीज के जवाब लिखवाना है. सो शेष कथा फिर कभी…
© शांतिलाल जैन
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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
शानदार व्यंग शांतिलाल जी। व्यंग क्या कहें बल्कि जमीनी हकीकत बयां की है आपने। बधाई आपको और आपकी चुभती हुई लेखनी को।