श्रीमती सविता मिश्रा ‘अक्षजा’

(श्रीमती सविता मिश्रा ‘अक्षजा’ जी हिंदी साहित्य की विभिन्न विधाओं  (लघुकथा, कहानी, व्यंग्य, छंदमुक्त कविता, आलेख, समीक्षा, जापानी-विधा हायकु-चोका आदि)  की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आप एक अच्छी ब्लॉगर हैं। कई सम्मानों / पुरस्कारों  से सम्मानित / पुरस्कृत / अलंकृत हैं। आपकी कई रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर की पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं एवं आकाशवाणी के कार्यक्रमों में प्रसारित हो चुकी हैं। ‘रोशनी के अंकुर’ लघुकथा एकल-संग्रह प्रकाशित| आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य ‘इससे अधिक ताजा क्या?‘. हम भविष्य में आपकी चुनिंदा रचनाएँ अपने पाठकों से साझा करने की अपेक्षा करते हैं।)

 ☆ व्यंग्य – इससे अधिक ताजा क्या? ☆ सविता मिश्रा ‘अक्षजा’ ☆

संपादक महोदय ने साहित्यकारों से ताजा-तरीन व्यंग्य ऐसे माँगा जैसे, फूल वाले से ग्राहक ताजा-तरीन फूल, सब्जी वाले से ताजा सब्जी, फल वाले से ताजे-ताजे फल, मिठाई वाले से ताजा-तरीन मिठाईयाँ। अब ये किसको पता चलता है कि ताजा चीज का दावा करने वाले उपर्युक्त लोग ताजा-ताजा का शोर मचा करके ग्राहक को चूना लगा देते हैं। तो भई व्यंग्यकार भला कैसे पीछे रहे, वह तो इन सब का बाप होता है। इन सबका क्या, वह तो सबका बाप बनने हेतु प्रयत्नशील रहता है, बन नहीं पाए ये और बात है। व्यंग्यकार से कवि बना मानुष से तो छुटंकी माचिस भी भय खाती है। अपनी हर रचना को ताजा-ताजा कहकर स्टेज पर खड़ा होकर धड़ल्ले से भीड़ के बीच, पुरानी छूटी-बिछड़ी पड़ी कविता को तड़का मारकर परोसकर आग लगा देता है| और बड़ी बेशर्मी से तालियों की माँग भी अपने लिए कर डालता है। जैसे गृहिणी बासी सब्जी को फ्रिज से निकालकर तड़का देकर ताजा कर देती है और घर वालों से तारीफ बटोर लेती है।  कभी- कभी अपनी छूटी-बिछड़ी नहीं, बल्कि इधर-उधर से झपटी गयी रचनाएँ भी सुना मारता है| सोशल साइट पर बिखरे दो लाइनों के हास्य पर वह ऐसे झपट्टा मारता है कि बेचारी चील की प्रजाति देख ले तो शरमा जाय| उसकी यह निर्भीकता साहित्यिक क्षेत्र के उस शगूफे की राह से होकर आयी रहती है, जहाँ यह शोर छाया रहता है कि ‘कोई किसी को पढ़ता नहीं है’। बस इसी पूर्वाग्रह के जाल में मकड़ी की तरह फंस जाता है चौर्यकर्म करने वाला वह खिलाड़ी| क्योंकि चुपके-चुपके ही सही, दूसरों की रचनाओं को पढ़ने वालों की कमी नहीं है। सब एक दूजे को पढ़ते रहते हैं, न अधिक सही, थोड़ा बहुत ही सही| बस कभी-कभी चोरों की किस्मत साथ नहीं देती है तो वे ऐसे पढ़ाकूओं के हत्थे चढ़ जाते हैं, दूसरे की रचना को अपनी कहने वालों पर चुपके-चुपके, चोरी-चोरी पढ़ने वाले आखिरकार नकेल डाल ही देते हैं। यधपि ताजा कह अपनी रचना कहने वाला कवि तब भी अड़ा ही रहता है, अड़ियल बैल क्या अड़ेगा उसके सामने।

 इस ताजे-ताजे की गुगली स्वप्रिय खेल तक सीमित नहीं है, इसका क्षेत्रफल उतना ही विशाल है जितना कि, हमारे देश में भ्रष्टाचार का खेल। इस ताजा के चक्कर में अपनी रचनाओं को ताजा अप्रकाशित कहकर पत्रिकाओं में ठिकाने लगाने वाले लोग पत्रिका तक नहीं रुकते हैं, बल्कि प्रतियोगिताओं में भी सेंध करने का प्रयत्न करते हैं। ताजा लिख न पाएं तो दूसरे साहित्यकारों की सोशल मीडिया पर घूमती रचनाओं को पकड़ते हैं, अपनी कुशाग्र बुद्धि का परिचय देते हुए उसके ढाँचे में फेरबदल करते हैं, और ताजा-तरीन कहकर पेश कर देते हैं सबके सामने।

मात वही खाते हैं जो इस क्षेत्र में नवागत होते हैं या फिर उनकी बुद्धि गधों से आयातित हुई होती है। कुछ बैल बुद्धि वाले भी प्रकट कृपालु की तरह प्रकट होते हैं और आरोप-प्रत्यारोप से आहत हुए बिना बैल से डटे रहते हैं कि भई रचना मेरी ही है। भले सबूत-दर-सबूत पेश किए जाते रहें। इस किस्म की प्रजाति झेंपने वाली जात-बिरादरी से नहीं होती है कि गदहे की तरह सब कुछ सुनकर चुप हो जाए| ये उस किस्म के गधे नहीं हैं जो धोबी के घर पाये जाते हैं, ये नेताओं के आगे-पीछे घूमने वाले गधे हैं| अतः प्रत्यारोप अधिक होने पर ‘क्या कर लोगे!’ कहकर दुलत्ती जमाकर अपने चौर्यकर्म में मेहनत और लगन पूर्वक पुनः जुट जाते हैं| आखिर परवाह क्योंकर करें, उन्हें भी तो किताबों के पहाड़ में अपनी आहुति डालनी होती है| पुस्तकों की गिनती बढ़ाने के लिए सबसे आवश्यक कार्य यह हेराफेरी ही तो है, और कई-कई गदहें इस अभूतपूर्व कार्य में लगे हुए हैं| उन्हें लगे रहने दीजिए साहेब, वैसे भी आप रोक भी नहीं सकते हैं| जब रोक नहीं सकते हैं तो फिर उन्हें बासी रचनाओं  से ताजा रचनाएँ बनाने दीजिए| कभी न कभी धोबी उन्हें खुद ही धोबिया पछाड़ दे देगा| 

हम कर रहे थे बैलों की बात और पहुँच गए फिर गदहों पर| समस्या वहाँ ही बार-बार पहुँचने की नहीं है, बल्कि समस्या प्रवृत्ति की है| इन्सान बलिष्ठ को छोड़कर कमजोर को सताने, उसकी किरकिरी करने में अपना समय अधिक खपाता है| यह  पूर्वाग्रह नहीं है प्रत्युत सौ-प्रतिशत सच है| बैल बचकर निकल जाते हैं और बेचारे गदहों को सैकड़ों बातें सुनाई जाती हैं| बैल को छेड़ने की हिम्मत किसी में है ही नहीं| ‘बैल बुद्धि’ की कहावत न जाने क्यों कही गयी, ‘गदहा बुद्धि’ कहावत क्यों नहीं बनी| ये जो बैल, साहित्य के क्षेत्र में घूमते हुए दूसरों की ताजा-ताजा रचनाएँ चर ले रहे हैं खुल्लम-खुल्ला, उनका क्या! बैल बुद्धि के होते तो इतनी सफाई से चर लेते और पता भी न चलता? हमें लगता है जो बैल, साहित्य में विद्वान हैं वे गदहों को मात दे रहे हैं| डंके की चोट पर लोगों की रचना उड़ाते हैं, टोंको तो घुघुआते हैं। यही रुके तो भी ठीक परन्तु ये दो कदम और आगे बढ़ते हैं और उसे अपनी लेखन कला से तिकड़म करके उसमें अपना रंग भरते हैं कि कहीं से से भी चोरी की प्रतीत न हो| तदुपरांत ताजातरीन कहकर सोशल मीडिया पर बिखरा देते हैं| दूसरों के आँखों में धूल झोंकने की ये इनकी सामान्य प्रक्रिया हो गयी है। कोई बोले तो बैल तो हैं ही और उनका दबदबा होता ही है, अतः ये गदहे की तरह दुलत्ती मारकर चारों खाने चित्त करने में विश्वास नहीं रखते हैं बल्कि सीधे सामने वाले के दिमाग पर वार करते हैं| इनके सिंघ भी होती है, अब गधे की तो होती नहीं है! अतः इनका वार कभी खाली नहीं जाता, इन्सान का दिमाग सुन्न हो जाता है| वह या तो पीछे हट जाता है, या फिर ब्लैक होल में समा जाता है| बैल हुँकार भरता हुआ मैदान में डटा रहता है और साहित्य के बियाबान जंगल में  विचरण करता है, इनका सानिध्य पाकर गधे भी खुल्लमखुल्ला विचरण करने से बाज नहीं आते हैं| 

 ताजा ताजा रचना है कहकर, दूसरे की बाग़ का फूल  संपादक-प्रकाशक के चरणों में चढ़ाकर साहित्यकार बने फिरते हैं| और ईमानदार, स्वाभिमानी, असल साहित्यकार ब्लैक होल को ही अपनी दुनिया समझ कर कर्मठता से रचता रहता है भावनाओं का संसार या फिर सन्यास ले लेता है|

संपादक जी हम ताजा-ताजा रचना भेज रहे हैं, बासी होने और दूसरे के हाथ साफ़ करने से पहले आपसे विनम्र विनती है संपादक महोदय, कृपा करिए और अपने ताजा-ताजा अंक में इस ताजातरीन रचना को छाप दीजिए वरना बेचारी एक और कलमकार कहीं ब्लैक होल में न समा जाए|  और यह हमारी ताजा रचना बासी होकर
किसी और के हाथ में उछल-कूद करती हुई और अन्य पत्रिकाओं में छपके हमें ही दुलत्ती मारने लगे|

…इति ताजातरीन कथा!

© श्रीमती सविता मिश्रा ‘अक्षजा’

फ़्लैट नंबर -३०२, हिल हॉउस, खंदारी अपार्टमेंट, खंदारी, आगरा, पिन- 282002

ई-मेल : [email protected]

मो. :  09411418621

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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