श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक विचारणीय व्यंग्य  “जाग रहा हूँ मैं, कृपया अब और न जगाएँ”।) 

☆ शेष कुशल # 32 ☆

☆ व्यंग्य – “जाग रहा हूँ मैं, कृपया अब और न जगाएँ” – शांतिलाल जैन 

‘जागो फलाने, जागो’.

मि. फलाने मुसीबत में हैं साहब. जगा तो दिया मगर कब तक जागते रहना है, कोई बता नहीं रहा. वे भी नहीं बता पा रहे जिन्होंने मि. फलाने को जगाया है. जागने को कोई कितना जाग सकता है, बताईये भला. मि. फलाने तो पहला सन्देश मिलने के बाद ही जाग गए थे मगर अभी भी, हर थोड़ी थोड़ी देर में कोई न कोई मेसेज कर ही देता है ‘जागो फलाने जागो’. बेचारे फलाने! खुद ही खुद को चिमटी काट कर देख ले रहे हैं, तस्दीक कर ले रहे हैं. बोले – “शांतिबाबू, मैं एफिडेविट दे सकता हूँ. मैं जाग रहा हूँ.  मेरी मदद करो यार, इनको बोलो कि मेरी जान नहीं खाएँ. कसम खाकर कहता हूँ जब तक वे आकर लोरी नहीं गाने लगेंगे तब तक मैं सोऊंगा नहीं, बस अब और मैसेज भेजना बंद कर दें.”

“मैसेज से तुम्हें क्या परेशानी है ? इग्नोर मार दो.”

“रोंगटे खड़े हो जाते हैं शांतिबाबू, जगाने के लिए ऐसा वीडिओ डालते हैं कि मारे डर के नींद उड़ जाती है. बाद में फेक्ट-चेकर्स बताते हैं कि वीडिओ डॉक्टर्ड था मगर तब तक नींद तो काफूर हो ही जाती है.”

“तो आप उन्हें बता दीजिए कि आप जाग रहे है, कृपया अब और न जगाया जाए.” – मैंने कहा.

“बताया मैंने, मगर वे नहीं माने. कहते हैं नहीं अभी और जागो. अभी नहीं  जागे तो कभी नहीं जाग पाओगे. जागते रहो. इत्ते सालों से तो सो रहे हो, और कित्ता सोओगे ? हज़ार साल पहले गुलाम हुए, इसलिए कि मैं सोया हुआ था. बताईये शांतिबाबू, इत्ती तो मेरी उमर भी नहीं है.”

“यार, तुम धैर्य रखो. विचलित मत हुआ करो.”

“शांतिबाबू, वे यहीं नहीं रुकते. चैलेंज करते हैं – तुम फलाने की असली औलाद हो तो जागो, जागते रहो. कहते हैं सो गए तो कायर कहलाओगे. अब जागने में भी वीरता समा गई है, बताईये भला.”

“तुम बीच बीच में झपकी ले लिया करो. पॉवर नैप.”

“नहीं नहीं शांतिबाबू, वे मुझे गीदड़ की औलाद कह देंगे. वे चाहते हैं मैं इस कदर जागता रहूँ कि मौका-ए-जरूरत ढ़िकाने को सुला डालूँ. सुला भी ऐसा डालूँ कि अगला चिरनिद्रा में चला जाए, कभी जाग ही न पाए.”

“सो नहीं सकते तो कम से कम लेट जाओ. उकडूँ काहे बैठे हो ?”

“कहते हैं सांप बिस्तर के नीचे बैठा है. हर थोड़ी देर में गद्दा हटा कर देख रहा हूँ मगर साला मिल नहीं रहा. पूछा तो कहते हैं जब तुम सोओगे तब कटेगा. बस तब से जाग ही रहा हूँ, शांतिबाबू.”

मि. फलाने न ठीक से सो पा रहे हैं, न ठीक से लेट पा रहे हैं. उनकी तकलीफ यहीं समाप्त नहीं होती. इन दिनों उनको जगाने वालों की बाढ़ सी आई हुई है. पहले चंद लोग जगाने का काम किया करते थे. अब उन्होंने मंच, संस्थाएँ, समूह बना लिए हैं. अलाना जागृति मंच, फलाना जगाओ समिति, ढ़िकाना जागरण फोरम. एक बार हुआ ये कि मि. फलाने फ्लाईओवर पर सो गए. तब से जागृति मंच वालों ने वहाँ एक बड़ा सा होर्डिंग लगवा दिया है. नुकीले सिरों से एक दूसरे को क्रॉस करती हुई बड़ी बड़ी दो तलवारों के बीच लिखा है ‘जागो फलाने जागो’. सिर पर तलवार लटकी हो तो कौन सो सकता है. तीस से ज्यादा फोटूएँ तो जगानेवालों की सजी हैं. संयोजकजी की बड़ी सी, हाथ जोड़ते हुए, नुकीली मूछों की राजसी धजवाली तस्वीर लगी है. वे यह कार्य निस्वार्थ रूप से कर रहे हैं. उन्हें मि. फलाने से कुछ नहीं चाहिए, बस जब मौका आए तो ईवीएम् पर उनकी छाप का खटका दबाना है. कुल मिलाकर, वे केवल वाट्सअप से ही नहीं जगाते, होर्डिंग लगाकर भी जगाते हैं. वे कोई एंगल बाकी नहीं रखते, वे ढोल-ताशों के साथ भी जगाने निकलते हैं, समूह में, मोर्चा जुलूस निकालकर. कभी कभी वे मोर्चे में तमंचा लेकर भी निकलते हैं, कोई सोता हुआ नज़र आए तो हवाई फायर की आवाज़ से जगा देते हैं. घिग्घी बंध जाती है श्रीमान. मि. फलाने तो क्या उनकी संतातियाँ भी सो नहीं पाती.

बहरहाल, कौन समझाए उन्हें कि लम्बे समय तक जागने से भी आदमी बीमार हो जाता है. बीमार आदमी ढ़िकाने से नफरत करने लगता है. वो ढ़िकाने से सब्जी खरीदना बंद करके विजेता होने के टुच्चे अहसास से भर उठता है. ढ़िकाने के घरों पर बुलडोज़र चल जाए तो खुश हो जाता है और प्रशासन की कार्रवाई के वीडियो वाइरल करने लगता है. उसको पंचर पकानेवाले में मुग़ल शहंशाह नज़र आने लगते है. नफरत उसे और बीमार बनाती है. फ़िलवक्त तो जागने-जगाने का जूनून सा तारी है और मि. फलाने उसकी चपेट में है. वह दुष्चक्र में फंस गया है. परेशानी से निजात पाने का कोई रास्ता उसे नज़र नहीं आया तब उसने भी दूसरों को जगाने का काम हाथ में ले लिया है. अब वो वाट्सअप पर बाकी फलानों को कह रहा है – ‘जागो फलाने, जागो’.

वैसे आप ये मत समझिएगा श्रीमान कि परेशान सिरिफ मि. फलाने ही हैं. ढ़िकानों के स्वयंभू आकाओं ने उनको भी जगा दिया है. वे भी बार बार अपनी गादी-गुदड़ियों के नीचे सांप ढूंढ रहे हैं. कमाल की बात तो ये कि सांप जेहन से सरसराता हुआ विवेक में प्रवेश कर गया है और वे उसे गद्दों-बिस्तरों के नीचे ढूंढ हैं. एक दिन एक सौ चालीस करोड़ लोग अपने गद्दों-बिस्तरों के नीचे सांप ढूंढ रहे होंगे. दरअसल, वे जिसे जागना समझ रहे हैं वो नफ़रतभरी नीम बेहोशी है, काश कोई उन्हें कह सके – ‘जागो और होश में आओ, यारों.’

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© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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