श्री शांतिलाल जैन
(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी के स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल में आज प्रस्तुत है उनका एक विचारणीय व्यंग्य “तब जब आपको बनेसिंग का फोन आए…”।)
☆ शेष कुशल # 38 ☆
☆ व्यंग्य – “तब जब आपको बनेसिंग का फोन आए…” – शांतिलाल जैन ☆
मैं इस समय ईएनटी स्पेशलिस्ट डॉक्टर के चेंबर के बाहर बैठा अपनी बारी आने की प्रतीक्षा कर रहा हूँ. तकलीफ क्या है ये मैं बाद में बताता हूँ, पहले आप बनेसिंग के बारे में जान लीजिए.
जब से बनेसिंग के मन में ये बात घर कर गई है कि मोबाइल कंपनीवाले दूसरी तरफ जाती हुई उसकी आवाज़ रिसीवर तक पहुँचने से पहले धीमी कर देते हैं तब से हर कॉल पर वो इतनी जोर से बात करता है कि आप हज़ार कोस दूर हरा बटन प्रेस किए बिना ही उसे सुन सकते हैं. बनेसिंग जब फोन पर बात करना शुरू करता है तो समूची कायनात सहम उठती है. उसके ‘हेलो’ बोलते ही अफरा-तफरी सी मच जाती है. एक जलजला आ जाने की आशंका में लोग इधर उधर छिपने-दुबकने लगते हैं. डेसीबल मीटर काम करना बंद कर देता है. हमारे विभाग की खिडकियों के कांच बनेसिंग के ट्रान्सफर होकर आने से पहले साबुत अवस्था में हुआ करते थे, चटक गए हैं. बनेसिंग को मैंने जब भी फोन करते सुना है हमेशा आरोह के स्वर में ही सुना है. ‘हेलो, मैं बोल रहा हूँ.’ जी, पता है आप ही बोल रहे हो. ‘हेलो, मैं बोल रहा हूँ, मेरी आवाज़ आ रही है आपको.’ जी, आ रही है, संसदों-विधायकों का तो नहीं पता परन्तु शेष देश में साढ़े छह करोड़ बधिरों को भी आ रही है.
यूं तो बनेसिंग एक दुबला पतला ज़ईफ़ इंसान है मगर कुदरत की मेहर से उसने फेफड़े मज़बूत पाए हैं, वोकल कार्ड भी उतनी ही सशक्त. कोरोना की दोनों लहरों में बनेसिंग के फेफड़े संक्रमित हुए मगर परवरदिगार ने उसकी ज़ोरदार आवाज़ में कोई कमी नहीं आने दी. काश!! समय रहते उसकी आवाज़ किसी समाचार चैनल के एचआर हेड के कानों में पड़ी होती तो वो आज देश का नंबर वन न्यूज एंकर होता. मुझे विश्वास है एक दिन ऐसा आएगा जब कवि सम्मलेन के मंच से वो पाकिस्तान में किसी को आईएसडी कॉल लगाकर बात करेगा और हम लोग हिंदी कविता के क्षितिज़ पर वीर रस का तेज़ी से उभरता कवि देखेंगे, बनेसिंह ज्वालामुखी.
बहरहाल, वो कितनी तेज़ आवाज़ में बात करे ये उसका संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकार है. गला है उसका, फेफड़े उसके, वोकल कार्ड उसकी, मोबाईल हेंडसेट उसका, तो फिर आप कौन? खामोखां. जिस खुदा ने उसे तेज़ आवाज़ के गले की नेमत बख्शी है उसी ने आपको पाँच अंगुलियाँ प्रति कान की दर से प्रोवाइड की हैं, बंद कर लीजिए, स्टरलाईज्ड कॉटन के फाहे लगा सकते हैं. बनेसिंग को दोष नहीं दे सकते. ऊँची आवाज़ के मामले में वो समाजवादी है. ‘आय लव यू’ जैसा नाजुक, कोमल, मृदुल-मधुर वाक्य भी उतनी ही हाय पिच पर बोल लेता है जितने कि हाय पिच पर ‘कमीने, मैं तेरा खून पी जाऊँगा’. कभी उसे मिसेज बनेसिंग से बात करते सुन लीजिए आपको लगेगा किसी प्राईवेट फाइनेंस कंपनी का एजेंट अपना रिकवरी टारगेट पूरा कर रहा है.
फोन पर संवाद बनेसिंग अक्सर खड़े हो कर करता है. शुरूआती पंद्रह सेकंड्स के बाद वह छोटा सा स्टार्ट लेता है और आगे की तरफ चलने लगता है. उसकी आवाज़ के आरोह और पैरों की गति में एक परफेक्ट जुगलबंदी नज़र आती है. आप समझ नहीं पाते कि वो चलते चलते बात कर रहा है कि बात करते करते चल रहा है. कभी कभी तो चलते चलते वो उसी शख्स के पास पहुँच जाता है जिससे कॉल पर बात कर रहा होता है. उसकी मसरूफियत का खामियाजा बहुधा उसकी नाक भुगतती है जो कभी दीवार पर टंगे फायर एक्स्टिंग्युषर से, कभी पुश/पुल लिखे दरवाजे से टकराकर चोटिल होती रहती है. एक बार तो वह बात करते करते बॉस के चेंबर की कांच की दीवार से टकरा चुका है. गनीमत है वे हफ्ते भर के अवकाश पर थे, उनके ज्वाइन करने से पहले रिपेयरिंग करा ली गई, वरना बनेसिंग तो….
तो हुआ ये श्रीमान उस रोज़ मैं घर पर ही था और बनेसिंग का फोन आया. मैं उसे बिना हरा बटन दबाए भी सुन सकता था मगर मैंने बेध्यानी में ऑन कर लिया. जैसे ही बनेसिंग ने बोला – “हेलो शांतिबाबू”, मेरे ईयरड्रम्स चोटिल हो गए. अब मैं ईएनटी स्पेशलिस्ट डॉक्टर के चेंबर के बाहर बैठा अपनी बारी आने की प्रतीक्षा कर रहा हूँ.
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© शांतिलाल जैन
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