श्री शांतिलाल जैन
(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी के स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल में आज प्रस्तुत है उनका एक विचारणीय व्यंग्य “जलते अनारों के बीच परिणय पथ पर गुजरते हुए…”।)
☆ शेष कुशल # 39 ☆
☆ व्यंग्य – “जलते अनारों के बीच परिणय पथ पर गुजरते हुए…” – शांतिलाल जैन ☆
“परिणयाकांक्षी युगल की मंच पर एंट्री रुकी हुई है. कारण, कि गफूरमियाँ कहीं चले गए हैं.” – मैंने दादू को बताया.
अनार में आग तो वही लगाएँगे. अनार जले तो वर-वधू आगे चलें. स्टेज की दिशा में प्रशस्त, कालीन बिछे, परिणय पथ पर कोरिओग्राफ्ड तरीके से आगे बढ़ने के लिए युगल तैयार खड़ा है. दुल्हे ने ज़रदोज़ी के कामवाली शेरवानी पहनी है तो दुल्हन ने पेस्टल लहंगा. कलरफुल स्मोक उगलने वाली मटकियाँ दोनों किनारों पर लगी हैं. अनार फिट कर दिए गए हैं. ‘दिन शगना दा चढेया, आओ सखियो..’ एंट्री सोंग बज रहा है. फोटोग्राफर, वीडिओग्राफर बार बार कैमरे के लेंस और एंगल सेट कर रहे हैं. छत से गुलाब की पंखुरियों को वैसे ही बरसाया जाना है जैसा आपने धार्मिक टीवी सीरियलों में देवताओं को आकाश से बरसाते हुए देखा होगा. नभ में विचरण करनेवाली परियों की ट्रू-कापियाँ वर-वधू के साथ-साथ पंखा झलते हुए चलेंगी. इन पंखों से हवा कितनी आएगी पता नहीं. आएगी भी कि नहीं कह नहीं सकते. मगर, फूटते बेलून और उड़ते गुब्बारों के बीच जब चलेंगे संग-संग मोहल्ले के अनंत अम्बानी – राधिका चौपड़ा तो उधर के आड़ी का बॉलीवुड बगलें झाँकने लगेगा. सेल्युलाईड के दृश्यों में परीकथा का तड़का लगाकार ब्राईडल एंट्री का यूनिक सीन क्रिएट किया हुआ है. देरी इसलिए हो रही है कि अनार जलानेवाले गफूरमियाँ एन वक्त पर कहीं चले गए हैं. अब अनार जले तो वर-वधू आगे चलें.
इस बीच दादू अधीर हो रहा था, जल्दी निकलना चाहता था. मंच के बाईं तरफ बड़ी संख्या में और भी मेहमान लिफ़ाफ़े लिए प्रतीक्षारत थे. अपना लिफाफा मुझे थमाते हुए दादू बोला – ‘शांतिबाबू मेरी तरफ से भी तुम ही सिंचित कर देना.’
‘सिंचित नहीं दादू अभिसिंचित.’
‘अभी सिंचित, बाद में सिंचित, कभी भी सिंचित करना यार, मगर करना जरूर. असिंचित ना रह जाए. जिझौतिया परिवार में लिफाफा फाड़ संध्या में रजिस्टर में नाम इसी से लिखा जाएगा. पता लगा कि हमने तो कर दिया मगर सिंचन उत्तरापेक्षी तक पहुँचा ही नहीं.’
‘दादू, पत्रिका में आशीर्वाद से अभिसिंचित करने का लिखा है.’
‘लिखना तो ऐसा ही पड़ता है. वैसे गौरीशंकरजी से पूछ लो अनार ही छोड़ना है तो हम भी छोड़ सकते हैं, दीवाली पे हाथ में पकड़े-पकड़े छोड़ लेते हैं.’
‘काहे इवेंटवालों के पेट पर लात मारना दादू, इनकी दुकानदारी है. कभी विंटेज कार में तो कभी गोल्फ-कार्ट में, कभी बजाज स्कूटर पर तो कभी डांसिंग दुल्हन के सर पर खटिया, फूलों से सजी, उठाए चार युवा. वो तो गार्डन अन्दर अलग से नाम रखने की परम्परा नहीं है सिरिमान वरना इस राह का नाम लैला-मजनूँ मार्ग होता. जो भी हो हर बार कौतुक कोई नया होना. कोल्ड स्टोरेजवाले अग्रवालजी तो और ग्रेट निकले. उनका राजकुमार शादी में खास तौर पर सजाए गए साईकिल रिक्शे में दुल्हनियाँ को बैठाकर रिक्शा चलाता हुआ मंच तक पहुँचा. अग्रवाल परिवार की बहू बनने को है, एक बार भाव तो करा ही होगा – स्टेज तक जाने का क्या लोगे? दूल्हे ने भी कहा ही होगा – उधर से लौटते में खाली आना पड़ता है, सवारी नी मिलती. बहरहाल, पारिजनों ने चलते रिक्शे पर क्विंटल भर फूलों की बारिश की. जो बात पंडितजी सात वचन में नहीं समझा पाते हैं इवेंटवालों ने बिना कहे ही समझा दी, बेटा इसी तरह खर्चा करते रहे तो एक दिन सच में साईकिल रिक्शा चलाकर पेट पालना पड़ेगा.
कल की कल से देखी जाएगी शांतिबाबू, आज तो एन्जॉय द ग्रैंड मैरिज ऑफ़ जिझौतिया’ज. दादू बोला – ‘इन्हीं पलों के लिए तो गौरीशंकरजी ने प्रोविडेंट फण्ड खाली कर डाला है, पर्सनल लोन लिया है सो अलग.’ लोकल अम्बानीज के पास ग्लोबल अम्बानीज जितने संसाधन भले न हों, खुशियाँ मनाने का जज्बा है यही क्या कम है!!
लो आ गए गफूरमियाँ. लाइट्स कैमरा एक्शन में जलते अनारों के बीच परिणय पथ पर गुजरते हुए…
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© शांतिलाल जैन
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