श्री शांतिलाल जैन
(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी के स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल में आज प्रस्तुत है उनका एक अप्रतिम और विचारणीय व्यंग्य “स्मृति शेष : पत्रकारिता का यूँ गुजर जाना…” ।)
☆ शेष कुशल # 45 ☆
☆ व्यंग्य – “स्मृति शेष : पत्रकारिता का यूँ गुजर जाना…” – शांतिलाल जैन ☆
दुःखी मन से स्मृति शेष लिखने बैठा हूँ. पत्रकारिता के अवसान की घटना सामान्य नहीं है. अभी समाज को उसकी जरूरत थी, दुःखद है कि वह अब हमारे बीच नहीं रही.
यूँ तो आर्यावर्त में लगभग दो सौ साल का जीवन जिया था उसने लेकिन उसके असमय चले जाने से जो स्थान रिक्त हुआ है उसकी क्षतिपूर्ति कर पाना मुश्किल है. हालाँकि कुछ सिरफिरे और जिद्दी पत्रकार टाईप लोग यू ट्यूब और इन्टरनेट पर उसकी याद को जिलाए रखने की कोशिश कर रहे हैं मगर वे इन्फ्लुएंस नहीं कर पा रहे. और जो इन्फ्लुएंसर हैं उन्होंने उसका पुनर्जन्म नहीं होने देने की सुपारी ले रखी है. उसने आर्यावर्त में, कलकत्ता में, 1826 में जन्म लिया मगर दम तोड़ा नई दिल्ली के बहादुरशाह ज़फर मार्ग की प्रेसों में, मंडी हाउसों में, नॉएडा के स्टूडियोज़ में.
बीमार थी. दो तीन दशकों से. पिछले एक दशक में कुछ ज्यादा सीरियस हो गई थी. डॉक्टरों ने जवाब दे दिया था. रिपोर्टर्स विदाऊट बॉर्डर्स की पैथ लैब से जाँच करवाई. रिपोर्ट में फ्रीडम का लेवल 180 आया. ये जानलेवा मानक से काफी ऊपर था और बढ़ता ही जा रहा था. फॉरेन तक के डॉक्टरों ने जवाब दे दिया. पेशेंट के तौर पर वह बिलकुल कोऑपरेट नहीं कर रही थी. टॉक्सिक्स अन्दर ही अन्दर बढ़ते जा रहे थे. निज़ाम ने ईलाज के जो इंतज़ामात किए उससे दाल और पतली होती चली गई. समझ में नहीं आया कि निज़ाम तबीयत ठीक करने में लगा है कि बिगाड़ने में.
बहरहाल, सिम्पटम्स तो बहुत समय पहले से उभरने लगे थे. पाठकों की अखबारों में, समाचार चैनलों में घटती रूचि, छीजता भरोसा, समाचारों की शक्ल में परोसे गए विज्ञापन, खरीदे गए न्यूज स्पेस के गोल गोल लाल चकते पूरे शरीर पर उभर आए थे. लग रहा था कि अब ये बचेगी नहीं. शरीर अलग पीला पड़ता जा रहा था. यलो जर्नालिज्म डायग्नोस हुआ. दुलीचंद बैद से चूने के पानी में संपादकों के हाथ धुलवाए, संवाददाताओं को सलीम मियाँ से झड़वाया, फोटो जर्नलिस्ट को तेजाजी महाराज की पाँच जात्रा करवाई, मगर कोई फायदा नहीं हुआ. हेपेटाईटिस वायरस के पॉलिटिकल वेरियंट ने उसका लीवर इतना खराब कर दिया था कि होम्योपैथी, आयुर्वेदिक, यूनानी कोई पैथी काम नहीं आई. एडिटर्स गिल्ड के मंदिर में ले गए, मन्नत मानी, न्यूज ब्रॉडकास्टर एंड डिजिटल एसोसिएशन के दरबार में ले गए वहाँ भी कृपा नहीं बरसी. कोई मंदिर, ओटला, मज़ार, बाबाजी का दरबार नहीं छोड़ा जहाँ ले नहीं गए. बिगड़ती सेहत का असर उसके दिमाग पर भी आ गया था. फिर उसे हिस्टीरिया के दौरे पड़ने लगे. रात नौ बजते ही वो जोर जोर से चिल्लाने लगती. प्राईम टाईम में बेसिरपैर के सवाल पूछती, आधे सच्चे आधे झूठे फेक्ट्स रखने लगती. कभी कभी पैनलिस्टों से गाली गलौच पर उतर आती. लोगों का मानना था कि उस पर निज़ाम की प्रेत-छाया है. किसी ने बताया प्रेस परिषद् के ओटले पे ले जाओ. बाबाजी कोड़े मार कर ऊपरी हवा का ईलाज करते हैं. ले गए साहब, वहाँ भी कुछ नहीं हुआ. प्रेस परिषद् के पास कोड़ा था ही नहीं, ‘कंडेम’ करने का परचा लिख कर उनने घर भेज दिया.
एक बार उसको दिमाग के डॉक्टर को भी दिखाया. मनोचिकित्सक. उसने बताया कि वो डर गई है. जब निज़ाम ने कुछ को अन्दर किया, कुछ के विज्ञापन रोक दिए, कुछ के मोबाइल, लैपटॉप जब्त किए तो किसी किसी को जहन्नुम का रास्ता दिखाया तब फियर सायकोसिस का शिकार हो गई. इस कदर कि उसने ‘फेक्ट’ और ‘फेक’ में अपने विवेक का इस्तेमाल करना छोड़ दिया, पॉवरफुल का ‘फेक’ भी ‘फेक्ट’नुमा आने लगा और पॉवरलेस का ‘फेक्ट’ भी ‘फेक’ की शक्ल में. मुझे याद है एक बार आईसीयू में थोड़ा सा एकांत पाकर उसने कहा था कि वह ईमानदार काम करना चाहती है मगर कर नहीं पा रही. थोड़ी ईमानदार कोशिश की, ‘गोंजो पत्रकारिता’ करने से इंकार कर दिया तो उसे हैक, प्रेस्टीट्यूट और न जाने क्या क्या कहा गया. बड़ा सदमा तब लगा जब उसे कंटेंट राइटर, कंटेंट मैनेजर कहा गया. शायद यही उसके डीप-डिप्रेशन में जाने की वजह रही होगी.
जितने मुँह उतनी बातें साहब. कोई कोई कहते कि रोज़मर्रा की खुराक की जिम्मेदारी बदलने से उसकी सेहत बिगड़ी. कभी उसे खाना-खुराक स्वतंत्र मिडिया हाऊस दिया करते थे, फिर यह जिम्मा कार्पोरेट्स से होते हुए कांग्लोमरेट्स तक आ गया. उसके बाद से उसकी सेहत तेज़ी से बिगड़ी. खाना-खुराक में कमी और प्रॉफिट लाने के दबाव में वह बीमार होती चली गई. गांधी, अंबेडकर, नेहरू के शुरू किए गए अखबारों से मिला खून कब का पानी हो चुका था. गणेश शंकर विद्यार्थी से लेकर राजेंद्र माथुर, प्रभाष जोशी तक बहुत कुछ ठीक चला. कष्ट तो उसने जीवनभर सहे मगर दम नहीं तोड़ा था. इमरजेंसी में मौत के मुँह में जाकर वापस आ गई. लेकिन इस बार बीमार पड़ी तो ऐसी कि संभली ही नहीं. एक समय वह इतनी तंदुरुस्त, हौंसलामंद और साहसी थी कि अकबर इलाहाबादी के बोल ने नारे की शक्ल अख्तियार कर ली – ‘जब तोप हो मुकबिल तो अख़बार निकालो.’ बीते दिनों दुर्बलता इतनी आ गई थी कि मामूली से नेता-प्रवक्ता ‘टॉय-गन’ की आवाज़ से डरा लेते. एक दो बार उसने पीठ में दर्द की शिकायत की तो आकाओं ने उसकी रीढ़ की हड्डी ही निकलवा दी. दरबार में रेंग-रेंग कर चलते चलते उसकी ठुड्डी, कोहनी, घुटनों, पर घाव पड़ गए थे, उसमें पेड-न्यूज का मवाद रिसने लगा था. एक बार वो रेंगने की मुद्रा में आई तो फिर खड़ी कभी नहीं हो पाई.
अन्दर की बात तो ये साहब कि उसको नशे लत लग गई थी. प्रॉफिट के नशे में रहने के लिए उसने टीआरपी नाम का ड्रग लेना शुरू कर दिया था. एडिक्ट हो गई थी. वो चौबीस घंटे टीआरपी की तलाश में रहती. थोड़ा भी नशा उतरा कि फिर जोर जोर से चिल्लाने लगती, वायलेंट हो जाती, हाथ पैर मारने लगती, पुड़िया खरीदने के लिए नैतिक अनैतिक कुछ नहीं देखती. नशा खरीदने के लिए उसने अपनी कलम तक गिरवी रख दी. पैथोलॉजिस्ट ने कहा कि टीआरपी के नशे की लत से उसका मस्तिष्क गल गया है. तो मरना तो था ही. मल्टीपल ऑर्गन फेल्योर हो चुकने के बाद भारी मन से उसे मृत घोषित करना पड़ा.
उसके अवसान की वजह एक रही हो या एक से ज्यादा, सच तो यह है कि वह अब हमारे बीच नहीं हैं. दो शताब्दी पूर्व आर्यावर्त के नभ पर जिस ‘उदंत मार्तण्ड’ का उदय हुआ था वह अब अस्त हो गया है. हमारी सेहत का दारोमदार उसके स्वास्थ्य पर टिका था. पता नहीं लोकतान्त्रिक समाज के तौर पर उसके बिना हम स्वस्थ कैसे रह पाएँगे? उसे विनम्र श्रद्धांजलि.
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© शांतिलाल जैन
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